मज्झिम निकाय
10॰—सति-पट्ठान-सुत्तन्त
एक समय भगवान् कुरू1 (देश) में कुरूओं के निगम (= कस्बा) कम्मास-दम्म में विहार करते थे।
वहाँ भगवान् ने भिक्षुओं को संबांेधित किया—“भिक्षुओ!”
“भदन्त!” (कह) भिक्षुओं ने भगवान् को उत्तर दिया।
“भिक्षुओ! यह जो चार स्मृति-प्रस्थान (= सति-पट्ठान) हैं, वह सत्तवों के—शोक कष्ट की विशुद्धि के लिएः दुःख=दौर्मनस्य के अतिक्रमण के लिये, न्याय (= सत्य) की प्राप्ति के लिये, निर्वाण की प्राप्ति और साक्षात् करने के लिये, एकायन (= अकेला) मार्ग है। कौन से चार?—भिक्षुओ! वहाँ (इस धर्म मे) भिक्षु काया में 2 काय-अनुपश्यी हो, उद्योगशील अनुभव (= संप्रजन्य) ज्ञान-युक्त, स्मृति-मान्, लोक (= संसार या शरीर) मे अभिध्या (= लोभ) और दौर्मनस्य (= दुःख)-को हटाकर विहरता है। वेदनाओं (= सुखादि) में 3वेदनानुपश्यी हो ॰ विहरता है। चित्त में चित्तानुपश्यी ॰। धर्मों मे धर्मानुपश्यी ॰।
“भिक्षुओ! कैसे भिक्षु काया में, कायानुपश्यी हो विहरता है?—भिक्षुओ! भिक्षु अरण्य में, वृक्ष के नीचे, या शून्यागार मे, आसन मारकर, शरीर को सीधाकर, स्मृति को सामने रखकर बैठता है। वह समरण रखते साँस लेता है। लम्बी साँस छोडते वक्त, ‘लम्बी साँस छोडता हूँ’—जानता है। लम्बी साँस लेते वक्त, ‘लम्बी साँस लेता हूँ’—जानता है। छोटी साँस छोडते, ‘छोटी साँस छोड़ता हूँ’—जानता है। छोटी साँस लेते ‘छोटी साँस लेता हूँ’—जानता है। सारी काया को जानते (= अनुभव करते) हुये, साँस छोडना सीखता है। सारी काया को जानते हुये साँस लेना सीखता है। काया के संस्कार (= गति, क्रिया) को शांत करते साँस छोड़ना सीखता है। काया के संस्कार को शांत करते साँस लेना सीखता है। जैसे कि—भिक्षुओ! एक चतुर ख्रादकार (= भ्रमकार) या खरादकार का अन्तेवासी लम्बे (काष्ट) को रंगते समय ‘लम्बा रंगता हूँ’—जानता है। छोटे को रगते समय ‘छोटा रंगता हूँ’—जानता है। ऐसे ही भिक्षुओ! भिक्षु लम्बी साँस छोडते ॰, लम्बी साँस लेते ॰, छोटी साँस छोडते ॰, छोटी साँस लेते ॰ जानता है। सारी काया को जानते (= अनुभव करते) हुये साँस छोडना सीखता है, ॰ साँस लेना ॰। काय-संस्कार को शांत करते साँस छोड़ना सीखता है; ॰ साँस लेना ॰। इस प्रकार काया के भीतरी भाग में कायानुपश्यी हो विहरता है। काया के बाहरी भाग मे ॰। काया के भीतरी और बाहरी भाग में कायानुपश्यी विहरता है। काया में समुदय (= उत्पत्ति) धर्म को देखता विहरता है। काया में व्यय (= खर्च, विनाश) धर्म को देखता है विहरता है। काया में समुदय-व्यय (= उत्पत्ति-विनाश) धर्म को देखता विहरता है। ‘काया है’—यह स्मृति, ज्ञान और स्मृति के प्रमाण के लिये उपस्थित रहती है। (तृष्णा आदि में) अ-लग्न हो विहरता है। लोक में कुछ भी (मैं, और मेरा करके) नहीं ग्रहण करता। इस प्रकार भी भिक्षुओ! भिक्षु काया मे काय बुद्धि रखते विहरता है।
“1फिर भिक्षुओ! भिक्षु जाते हुये ‘जाता हूँ’—जानता है। बैठे हुये ‘बैठा हूँ’—जानता है। सोये हुये ‘सोया हूँ’—जानता है। जैसे जैसे उसकी काया अवस्थित होती है, वैसे ही उसे जानता है। इसी प्रकार काया के भीतरी भाग में कायानुपश्यी हो विहरता है; काया के बाहरी भाग मे कायानुपश्यी विहरता है। काया के भीतरी और बाहरी भागो में कायानुपश्यी विहरता है। काया में समुदय- (= उत्पत्ति)-धर्म देखता विहरता है, ॰ व्यय- (= विनाश) धर्म ॰, ॰ समुदय-व्यय-धर्म ॰। ॰।
“2और भिक्षुओ! भिक्षु जानते (= अनुभव करते) हयु गमन-आगमन करता है। जानते हुये आलोकन-विलोकन करता है। ॰ सिकोडना फैलाना ॰ 3संघाटी, पात्र, चीवर का धारण करता है। जानते हुयें आसन, पान, खादन, आस्वादन, करता है। ॰ पाखाना (= उच्चार), पेशाय (= पस्साव), करता है। चलते, खडे होते, बैठते, सोते, जागते, बोलते, चुप रहते, जानकर करने वाला होता है। इस प्रकार काया के भीतरी भाग में कायानुपश्यी हो विहरता है। ॰।
“4और भिक्षुओ! भिक्षु पैर के तलवे से ऊपर, केश-मस्तक से नीचे, इस काया को नाना प्रकार के मलों से पूर्ण देखता (= अनुभव करता) है—इस काया में हैं—केश, रोम, नख, दाँत, त्वक् (= चमडा), मांस, स्नायु, अस्थि, अस्थि (के भीतर की) मज्जा, घृक्क, हृदय (कलेजा), यकृत, क्लोमक, प्लीहा (= तिल्ली), फुफ्फुस, आँत, पतली आँत (= अंत-गुण), उदरस्थ (वस्तुयें), पाखाना, पित्त, कफ, पीब, लोहू, पसीना, मेद (= वर), आँसू, वसा (= चर्बी), लार, नासा-मल, 5लसिका, और मूत्र। जेसे भिक्षुओ! नाना अनाज शाली, व्रही (= धान), मूँग, उडद, तिल, तण्डुल से दोनों भुखमरी डेहरी (= मुढोली, पुटोली) हो, उसको आँख वाला पुरूष खोलकर देखे—यह शाली हैं, यह ब्रीही है, यह मूँग है, यह उड़द हैं, यह तिल हैं, यह तंडुल हैं। इसी प्रकार भिक्षुओ! भिक्षु पैर के तलवे के ऊपर केश-मस्तक से नीचे इस काया को नाना प्रकार के मलों से पूर्ण देखता है—इस काया में हैं ॰। इस प्रकार काया के भीतरी भाग में कायानुपश्यी हो विहरता है। ॰।
“और फिर भिक्षुओ! भिक्षु इस काया को (इसकी) स्थिति के अनुसार (इसकी) रचना के अनुसार देखता है—इस काया में हैं—पृथिवी धातु (= पृथिवी महाभूत), आज (= जल)-धातु, तेज (= अग्नि) धातु, वायु-धातु। जैसे कि भिक्षुओ! दक्ष (= चतुर) गो-घातक या गो-घातक का अन्तेवासी, गाय को मारकर बोटी बोटी काटकर चैरस्ते पर बैठा हो। ऐसे ही भिक्षुओ! भिक्षु इस काया को स्थिति के अनुसार, रचना के अनुसार देखता है। ॰। इस प्रकार काया के भीतरी भाग को ॰।
“1और भिक्षुओ! भिक्षु एक दिन के भरे, दो दिन के भरे, तीन दिन के भरे, फूले, नीले पड गये, पीब-भरे, (मृत)-शरीर को श्मशान में फेकी देखे। (और उसे) वह इसी (अपनी) काया पर घटावै—यह भी काया इसी धर्म (= स्वभाव)-वाली, ऐसी ही होने वाली, इससे न बच सकने वाली है। इस प्रकार काया के भीतरी भाग ॰। ॰।
“और भिक्षुओ! भिक्षु कौओं से खाये जाते, चील्हों से खाये जाते, गिद्धों से खाये जाते, कुत्तों से खाये जाते, नाना प्रकार के जीवों से खाये जाते, श्मशाम में फेंके (मृत)-शरीर को देखै। वह इसी (अपनी) काया पर घटावै—यह भी काया ॰। ॰।
“और भिक्षुओ! भिक्षु माँस-लोहू-नसों से बँधे हड्डी-कंकाल वाले शरीर को श्मशान में फेंका देखे ॰। ॰।
“॰ माँस-रहित लोहू-लगे, नसों से बँधे ॰। ॰। ॰ माँस-लोहू-रहित नसों से बँधे ॰। ॰। ॰ बंधन-रहित हड्डियों को दिशा-विदिशा में फेंकी देखे—कहीं हाथ की हड्डी है, ॰ पैर की हड्डी ॰ ॰ जंघा की हड्डी ॰, ॰ उरूकी हड्डी ॰, कमर की हड्डी ॰, ॰ पीठ के काँटे ॰, ॰ खोपडी ॰; और इसी (अपनी) 2काया पर घटावे ॰। ॰।
“और भिक्षुओ! भिक्षु शंख के समान सफेद वर्ण के हड्डीवाले शरीर को श्मशान में फेंका देखे ॰। ॰। ॰ वर्षो-पुरानी जमा की हड्डियों वाले ॰। ॰। ॰ सडी चूर्ण हो गई हड्डियों वाले ॰। ॰।
“कैसे भिक्षुओ! भिक्षु 3वेदनाओं में वेदनानुपश्यी (हो) विहरता है?—भिक्षुओ! भिक्षु सुख-वेदना को अनुभव करते ‘सुख-वेदना अनुभव कर रहा हूँ’—जानता है। दुःख-वेदना को अनुभव करते ‘दुःखवेदना अनुभव कर रहा हूँ’—जानता है। अदुःख-असुख वेदना को अनुभव करते ‘अदुःख-असुख-वेदना अनुभव कर रहा हूँ’—जानता है। स-आमिष (= भोग-पदार्थ-सहित) सुख-वेदना को अनुभव करते ॰। निर्-आमिष सुख-वेदना ॰। स-आमिष दुःख-वेदना ॰। निर्-आमिष दुःख-वेदना ॰। स-आमिष अदुःख-असुख-वेदना ॰। निर्-आमिष अदुःख-असुख-वेदना ॰। इस प्रकार काया के भीतरी भाग ॰। ॰।
“कैसे भिक्षुओ! भिक्षु चित्त में 8चित्तानुपश्यी हो विहरता है?—यहाँ भिक्षुओ! भिक्षु स-राग चित्त को ‘स-राग चित्त है’—जानता है। विराग (= राग-रहित) चित्त को ‘विराग चित्त है’—जानता है। स-द्वेष चित्त को ‘सद्वेष चित्त है’—जानता है। वीत-द्वेष (= द्वेष-रहित) चित्त को ‘वीत-द्वेष चित्त है’—जानता है। स-मोह चित्त को ॰। वीत-मोह चित्त को ॰। संक्षिप्त चित्त को ॰। विक्षिप्त चित्त को ॰। महद्-गत (= महापरिमाण) चित्त को ॰। अ-महद्गत चित्त को ॰। स-उत्तर ॰। अन्-उत्तर (= उत्तम) ॰। समाहित (= एकाग्र) ॰। अ-समाहित ॰। विमुक्त ॰। अ-विमुक्त ॰। इस प्रकार काया के भीतरी भाग ॰। ॰।
“कैसे भिक्षुओ! भिक्षु धर्मों में 5धर्मानुपश्यी हो विहरता है?—भिक्षुओ! भिक्षु पांच नीवरण धर्मों में धर्मानुपश्यी (हो) विहरता है। कैसे भिक्षुओ! भिक्षु पांच 6नीवरण धर्मों में धर्मानुपश्यी हो विहरता है?—यहां भिक्षुओ! भिक्षु विद्यमान भीतरी कामच्छन्द (= कामुकता) को ‘मेरे में भीतरी काम-च्छन्द विद्यमान है’—जानता है। अ-विद्यमान भीतरी कामच्छन्दको ‘मेरे में भीतरी कामच्छन्द नहीं विद्यमान है’—जानता है। अन्-उत्पन्न कामच्छन्द की जैसे उत्पत्ति होती है, उसे जानता है। जैसे उत्पन्न हुये कामच्छन्द का प्रहाण (= विनाश) होता है, उसे जानता है। जैसे विनष्ट कामच्छन्द की आगे फिर उत्पत्ति नहीं होती, उसे जानता है। विद्यमान भीतरी व्यापाद (= द्रोह) को—’मेरे मे भीतरी व्यापाद विद्यमान है’—जानता है। अ-विद्यमान भीतरी व्यापाद को—’मेरे मे भीतरी व्यापाद नहीं विद्यमान है’—जानता है। जैसे अन्-उत्पन्न व्यापाद उत्पन्न होता है, उसे जानता है। जैसे उत्पन्न व्यापाद नष्ट होता है, उसे जानता है। जैसे विनष्ट व्यापाद आगे फिर नहीं उत्पन्न होता, उसे जानता है। विद्यमान भीतरी स्त्यान-मृद्ध (= थीन-मिद्ध=शरीर-मन की अलसता) ॰। ॰।
॰ भीतरी औद्धत्य-कौकृत्य (= उद्धच्च-कुक्कुच्च=उद्वेग-खेद, ) ॰। ॰।
॰ भीतरी विचिकित्सा (= संशय) ॰। ॰।
“इस प्रकार भीतर धर्मों में धर्मानुपश्यी हो विहरता है। बाहर धर्मों मे (भी) धर्मानुपश्यी हो विहरता है। भीतर-बाहर ॰। धर्मों मे समुदय (= उत्पत्ति) धर्म का अनुपश्यी (= अनुभव करने वाला) हो विहरता है।। ॰ व्यय (= विनाश)-धर्म ॰। ॰ उत्पत्ति-विनाश-धर्म ॰। स्मृति के प्रमाण के लिये ही, ‘धर्म है’—यह स्मृति उसकी बराबर विद्यमान रहती है। वह (तृष्णा आदि मे) अ-लग्न हो विहरता है। लोक मे कुछ भी (मैं और मेरा) करके प्रहण नहीं करता। इस प्रकार भिक्षुओ! भिक्षु धर्मों मे धर्म-अनुपश्यी हो विहरता है।
“और फिर भिक्षुओ! भिक्षु पाँच उपादान 1स्कध धर्मों मे धर्म-अनुपश्यी हो विहरता है। कैसे भिक्षुओ! भिक्षु पाँच उपादान स्कंध धर्मों में धर्म-अनुपश्यी हो विहरता है? भिक्षुओ! भिक्षु (अनुभव करता है)—’यह रूप है’, ‘यह रूप की उत्पत्ति (= समुदय)’, ‘यह रूप का अस्त-गमन (= विनाश) है’। ॰ संज्ञा ॰। ॰ संस्कार ॰। ॰ विज्ञान ॰। इस प्रकार अध्यात्म (= शरीर के भीतरी) धर्मों में धर्म-अनुपश्यी हो विहरता है। वहिर्घा (= शरीर के बाहरी) धर्मों मे धर्म-अनुपश्यी ॰। शरीर के भीतरी-बाहरी धर्मों (= वस्तुओं) में समुदय (= उत्पत्ति)—धर्म को अनुभव करता विहरता है। वस्तुओं मे विनाश (= व्यय)—धर्म को अनुभव करता विहरता है। वस्तुओ मे उत्पत्ति-विनाश-धर्म को अनुभव करता विहरता है। सिर्फ ज्ञान और स्मृति के प्रमाण के लिये ही ‘धर्म है’—यह स्मृति उसको बराबर विद्यमान रहती है। वह अ-लग्न हो विहरता है। लोक में कुछ भी नहीं ग्रहण करता। इस प्रकार भिक्षुओ! भिक्षु पांच उपादान-स्कंधो मे धर्म (= स्वभाव) अनुभव करता (= धर्म-अनुपश्यी) विहरता है।
“और फिर भिक्षुओ? भिक्षु छः आध्यात्मिक (= शरीर के भीतरी), बाह्य (= शरीर के बाहरी) 5आयतन धर्मों मे धर्म अनुभव करता विहरता है। कैसे भिक्षुओ! भिक्षु छः भीतरी बाहरी आयतन (-रूपी) धर्मों में धर्म अनुभव करता विहरता है?—भिक्षुओ! भिक्षु चक्षुको अनुभव करता है, रूपो को अनुभव करता है, और जो उन दोनो (= चक्षु और रूप) करके संयोजन3 उत्पन्न होता है, उसे भी अनुभव करता है। जिस प्रकार अन्-उत्पन्न संयोजन की उत्पत्ति होती है, उसे भी जानता है। जिस प्राकर उत्पन्न संयोजन का प्रहाण (= विनाश) होता है, उसे भी जानता है। जिस प्रकार प्रहीण (= विनष्ट) संयोजन की आगे फिर उत्पत्ति नहीं होती, उसे भी जानता है। श्रोत्र को अनुभव करता है; शब्द को अनुभव करता है ॰। घ्राण (सूंघने की शक्ति, घ्राण-इंद्रिय) को अनुभव करता है। गंध को अनुभव करता है ॰। जिह्वा ॰ र ॰। ॰। काया (= त्वक्-इंद्रिय, ठंडा गर्म आदि को जानने की शक्ति) ॰, स्प्रष्टव्य (= ठंडा गर्म आदि) ॰। ॰। मन को अनुभव करता है। धर्म (= मन के विषय) को अनुभव करता है। दोनो (= मन और धर्म) करके जो संयोजन उत्पन्न होता है, उसको भी अनुभव करता है। ॰। इस प्रकार अध्यात्म (= शरीर के भीतर) धर्मों (= पदार्थों) में धर्म (= स्वभाव) अनुभव करता विहरता है, बहिर्घा (= शरीर के बाहर) ॰, अध्यात्म-बहिर्घा ॰। धर्मों में उत्पत्ति-धर्म को ॰, ॰ विनाश-धर्म को ॰, ॰ उत्पत्ति-विनाश-धर्म को ॰। सिर्फ ज्ञान और स्मृति के प्रमाण के लिये ॰। इस प्रकार भिक्षुओ! भिक्षु शरीर के भीतर और बाहर वाले छः आयतन धर्मों (= पदार्थो) में धर्म (= स्वभाव) अनुभव करता विहरता है।
“और भिक्षुओ! भिक्षु सात बोधि-अंग धर्मों (= पदार्थो) मे धर्म (= स्वभाव) अनुभव करता विहरता है। कैसे भिक्षुओं ॰? भिक्षुओ! भिक्षु विद्यमान भीतरी (= अध्यात्म) स्मृति संबोधि-अंग को ‘मेरे भीतर स्मृति संबोधि-अंग है’—अनुभव करता है। अ-विद्यमान भीतरी स्मृति संबोधि-अंग को ‘मेरे भीतर स्मृति संबोधि-अंग नहीं है’—अनुभव करता है। जिस प्रकार अन्-उत्पन्न स्मृति संबोधि-अंग की उत्पत्ति होती है; उसे जानता है। जिस प्रकार उत्पन्न स्मृति संबोधि अंग की भावना परिपूर्ण होती है; उसे भी जानता है। ॰ भीतरी धर्म-विचय (= धर्म-अन्वेषण) संबोधि-अंग ॰। ॰ वीर्य ॰। ॰ प्रीति ॰। ॰ प्रश्रब्धि ॰। ॰ समाधि ॰। विद्यमान भीतरी उपेक्षा संबोधि-अंग को ‘मेरे भीतर उपेक्षा संबोधि-अंग है’—अनुभव करता है। अ-विद्यमान भीतरी उपेक्षा संबोधि-अंग को ‘मेरे भीतर उपेक्षा संबोधि-अंग नहीं है’—अनुभव करता है। जिस प्रकार अन्-उत्पन्न उपेक्षा संबोधि-अंग की उत्पत्ति होती है; उसे जानता है। जिस प्रकार उत्पन्न उपेक्षा संबोधि-अंग की भावना परिपूर्ण होती है; उसे जानता है। इस प्रकार शरीर के धर्मो मे धर्म अनुभव करता विहरता; शरीर के बाहर ॰, शरीर के भीतर-बाहर ॰। ॰। इस प्रकार भिक्षुओ! भिक्षु शरीर के भीतर और बाहर वाले सात संबोधि-अंग धर्मों मे धर्म अनुभव करता विहरता है।
“और फिर भिक्षुओ! भिक्षु चार आर्य-सत्य धर्मों में धर्म अनुभव करते विहरता है। कैसे ॰? भिक्षुओ! ‘यह दुःख है’—ठीक ठीक (= यथाभूत=जैसा है वैसा) अनुभव करता है। ‘यह दुःख का समुदय (= कारण) है’—ठीक ठीक अनुभव करता है। ‘यह दुःख का निरोध (= विनाश) है’—ठीक ठीक अनुभव करता है। ‘यह दुःख के निरोध की ओर ले जाने वाला मार्ग (= दुःख-निरोध गामिनो-प्रतिपद्) है’—ठीक ठीक अनुभव करता है।
“इस प्रकार भीतरी धर्मों मे धर्मानुपश्यी हो विहरता है। ॰। अ-लग्न हो विहरता है। लोक में किसी (वस्तु) को भी (मैं और मेरा) करके नहीं ग्रहण करता। इस प्रकार भिक्षुओ! भिक्षु चार आर्य-सत्य धर्मों मे धर्मानुपश्यी हो विहरता है।
“जो कोई भिक्षुओ! इन चार स्मृति-प्रस्थानों की इस प्रकार सात वर्ष भावना करै, उसको दो फलों में एक फल (अवश्य) होना चाहिये—इसी जन्म में आज्ञा (= अर्हत्व) का साक्षात्कार, या उपाधि शेष होने पर अनागामी-भाव। रहने दो भिक्षुओ! सात वर्ष, जो कोई इन चार स्मृति-प्रस्थानों को इस प्रकार छः वर्ष भावना करै ॰। ॰ पाँच वर्ष। चार वर्ष ॰। ॰ तीन वर्ष ॰। ॰ दो वर्ष ॰। ॰ एक वर्ष ॰। ॰ सात मास ॰। ॰ छः मास ॰। ॰ पाँच मास ॰। ॰ चार मास ॰। ॰ तीन मास ॰। ॰ दो मास ॰। ॰ एक मास ॰। ॰ अर्द्ध मास ॰। ॰ सप्ताह ॰।
“भिक्षुओ! ‘वह जो चार स्मृति-प्रस्थान हैं; वह सत्वों के शोक-कष्ट की विशुद्धि के लिये, दुःख दौर्मनस्य के अतिक्रमण के लिये, न्याय (= सत्य) की प्राप्ति के लिये, निर्वाण की प्राप्ति और साक्षात् करने के लिये, एकायन मार्ग है।’ यह जो (मैंने) कहा, इसी कारण से कहा।”
भगवान् ने यह कहा, सन्तुष्ट हो, उन भिक्षुओं ने भगवान् के भाषण को अभिनन्दित किया।
1—इति मूलपरियायवग्ग (1/1)