मज्झिम निकाय

29. महा- सारोपम- सुत्तन्त

ऐसा मैंनें सुना—

एक समय, देवदत्त के निकल जाने के थोड़े ही समय बाद भगवान् राजगृह में गृध्कूट-पर्वत पर विहार करते थे।

वहाँ भगवान् ने भिक्षुओं को देवदत्त के संबंध में सम्बोधित किया।

“भिक्षुओ! कोई कुल पुत्र श्रद्धापूर्वक घर से बेघर हो प्रब्रजित (= संन्यासी) होता है—‘मैं जन्म, जरा, मरण, शोक, रोदन, क्रंदन, दुःख दुर्मनस्कता, परेशानी में पडा हुआ हूँ। दुःख में पडा, दुःख से लिप्त मेरे लिये क्या कोई इस केवल (= खालिस) दुःख-स्कंध (= दुःखपुंज) के अन्त करने का उपाय है?’ वह इस प्रकार प्रब्रजित हो, लाभ, सत्कार, श्लोक (= प्रशंसा) का भागी होता है। उस लाभ, सत्कार, श्लोक से संतुष्ट हो (अपने को) परिपूर्ण-संकल्प समझता है। वह उस लाभ, सत्कार, श्लोक से अपने लिये अभिमान करता है और दूसरे को नीच समझता है—‘मैं लाभवाला, सत्कार वाला, श्लोक वाला हूँ और यह दूसरे भिक्षु अप्रसिद्ध शक्तिहीन है। वह उस लाभ, सत्कार, श्लोक से मतवाला होता है, प्रमादी बनता है, प्रमाद (= भूल) करने लगता है। प्रमत्त हो दुःख में पडता है।

“जैसे भिक्षुओ! सार चाहने वाला=सारगवेषी पुरूष, सार (= हीर) की खोज में घूमता हुआ एक सार वाले महान् वृक्ष के रहते, उसके सार को छोड़, फल्गु को छोड, छालको छोड, पपडी को छोड, शाखा पत्ते को काट, ‘यही सार है’—समझ लेकर चला जाय। उसकों आँखवाला पुरूष देखकर ऐसा कहे—‘हे पुरूष! आपने सार को नहीं समझा, फल्गु को नहीं समझा, छाल को नहीं समझा, पपडी को नहीं समझा, शाखा-पत्ते को नहीं समझा, जो कि आप सार चाहने वाले, सार-गवेषी ॰ ‘यही सार है’—समझ ले जा रहे हैं। सार से जो काम करना है वह…… …..इससे न होगा’। ऐसे ही भिक्षुओ! यहाँ एक कुल-पुत्र ॰ दुःख में पडता है। भिक्षुओ! इसे कहते है कि भिक्षु ने ब्रह्मचर्य के शाखा-पत्ते को ग्रहण किया और उतने ही से (अपने कृत्य को) समाप्त कर दिया।

“यहाँ भिक्षुओ! कोई कुल-पुत्र श्रद्धा से ॰ वह इस प्रकार प्रब्रजित हो, लाभ सतकर श्लोक का भागी होता है। (किन्तु) वह उस लाभ, सत्कार, श्लोक से संतुष्ट नहीं होता (अपने को) परिपूर्ण-संकल्प नहीं समझता। वह उस लाभ, सत्कार, श्लोक से न अपने लिये घमंड करता है, न दूसरों को नीच समझता है। वह उस लाभ, सत्कार, श्लोक से, मतवाला नहीं होता, प्रमादी नहीं होता, प्रमाद में लिप्त नहीं होता! प्रमादरहित हो शील (= सदाचार) का आराधन करता है। उस शील के आराधन से संतुष्ट होता है। (अपने को) पूर्ण-संकल्प समझता है। वह उस शील-संपदा से अपने लिये अभिमान करता है और दूसरों को नीच समझता है—‘मैं शीलवान् (= सदाचारी), कल्याण-धर्मा (= पुण्यात्मा) हूँ और ये दूसरे भिक्षु दुराचारी, पापधर्मा है। वह उस शील की संपदा से मतवाला हो जाता है, प्रमादी होता है, प्रमाद में लिप्त होता है, प्रमादी होकर दुःखित होता है।

“जैसे भिक्षुओ! सारका चाहने वाला, सारका खोजी, पुरूष सारकी तलाश में फिरते (घूमते हुए) ॰ फल्गु छोडकर छाल और पपडी को काटकर—‘यही सार है’—समझ लेकर चला जाय। उसको आँख वाला पुरूष देखकर ऐसा कहे—आप सार को नहीं समझे, नहीं फल्गु को समझे, नहीं छाल को समझे, नहीं पपडी को समझे, नहीं शाखा-पत्र को समझे। यह आप सार चाहने वाले ॰ लेकर जा रहे हैं; ऐसे ही भिक्षुओ! यहाँ कोई कोई कुल-पुत्र ॰ दुःखित होता है। यह कहा जाता है भिक्षुओ! कि भिक्षु ने ब्रह्मचर्य की पपड़ी को ग्रहण किया, उसी से (अपने कृत्य की) समाप्ति कर दी।

“और भिक्षुओ! कोई कुल-पुत्र ॰ लाभ सत्कार श्लोक से संतुष्ट न हो ॰ वह उस शील-संपदा से नहीं मतवाला होता ॰ प्रमाद-रहित हो ॰ उस समाधि कों संपदा से संतुष्ट होता है। (अपने को) परिपूर्ण-संकल्प समझता है। वह उस समाधि-संपदा से अपने लिये अभिमान करता है और दूसरों को नीच समझता है—‘मैं समाधि-युक्त-चित्तवाला हूँ, एकाग्र चित्त हूँ, किन्तु ये, दूसरे भिक्षु समाधि-रहित, विक्षिप्त-चित्तवाले हैं। वह उस समाधि-संपतित से मतवाला होता है ॰ प्रमादी हो दुखित होता है। जैसे भिक्षुओ! सार चाहने वाला ॰ सार (= हीर) को छोडकर फल्गु और छाल को काटकर, यही सार है—समझ लेकर चला जाय। उसको आँख वाला पुरूष ॰ ऐसे ही भिक्षुओ! यहाँ कोई कुल-पुत्र ॰ दुःखी होता है। यह कहा जाता है भिक्षुओ! कि भिक्षु ने ब्रह्मचर्य की छाल ही ग्रहण किया ॰।

“और भिक्षुओ! कोई कुल-पुत्र ॰ वह उस समाधि-संपदा से नहीं मतवाला होता ॰; प्रमाद-रहित हो ज्ञान-दर्शन (= तत्व-साक्षात्कार) का आराधन करता है। वह उस ज्ञान-दर्शन से सन्तुष्ट होता है, परिपूर्ण-संकल्प (समझता है)। वह ज्ञान-दर्शन से अपने लिये अभिमान करता है, दूसरों को नीच समझता है—‘मैं जानता देखता (= तत्व-साक्षात्कार करता) विहरता हूँ’, किन्तु, ये दूसरे भिक्षु न जानते, न देखते विहरते हैं वह उस ज्ञान-दर्शन से मतवाला होता है ॰ दुःखी होता है। जैसे भिक्षुओ! सार चाहने वाला ॰ सार को छोड़कर फल्गु को काट, यही सार है—समझ लेकर चला जाय। ॰ ऐसे ही भिक्षुओ! यहाँ कोई कुल-पुत्र ॰ दुःखित होता है। यह कहा जाता है भिक्षुओ! कि भिक्षु ने ब्रह्मचर्य के फल्गु को ग्रहण किया। ॰

“और भिक्षुओ! कोई कुल-पुत्र ॰ वह उस ज्ञान-दर्शन से संतुष्ट होता है; किन्तु, परिपूर्ण संकल्प नहीं होता। वह उस ज्ञान-दर्शन से न अपने लिये अभिमान करता है; और न दूसरे को नीच समझता है। वह उस ज्ञान-दर्शन से मतवाला नहीं होता; प्रमाद नहीं करता…..। प्रमाद-रहित हो आकालिक (= सद्यः प्राप्य) मोक्ष को आराधित करता है। भिक्षुओ! यह संभव नहीं, इसका अवकाश नहीं, कि वह भिक्षु उस अकालिक मोक्ष से च्युत होवे। जैसे भिक्षुओ! सार चाहने वाला ॰ सार को ही काटकर ‘यही सार है’—समझ ले जाये। उसे आँख वाला पुरूष देखकर यह कहे—‘अहो! आपने सार को समझा है ॰ शाखा-पत्र को समझ लिया है; सो यह आप सार चाहने वाले=सार-गवेषी, सार की खोज में घुमते, सार वाले महान् वृक्ष के खड़े रहते सार को ही—‘यह सार है’ (समझ), काटकर ले जा रहे हैं। जो इन्हंे सार से काम लेना है वह मतलब पूरा होगा। ऐसे ही भिक्षुओ! यहाँ कोई कुल-पुत्र ॰ उस अकालिक मोक्ष से च्युत होवे।

“इस प्रकार भिक्षुओ! यह ब्रह्मचर्य लाभ, सत्कार, श्लोक पाने के लिये नहीं है। शील-संपत्ति के लाभ के लिये नहीं है, न समाधि-संपत्ति के लाभ लिये है, न ज्ञान-दर्शन (= तत्व के ज्ञान और साक्षात्कार) के लाभ के लिये है। भिक्षुओ! जो यह न च्युत होने वाली चित्त की मुक्ति है, इसी के लिये यह ब्रह्मचर्य है। यही सार है, यही अन्तिम निष्कर्ष है।”

भगवान् ने यह कहा, संतुष्ट हो उन भिक्षुओं ने भगवान् के भाषण को अभिनंदित किया।