मज्झिम निकाय
37. चूल-तण्हा-संखय-सुत्तन्त
एक समय भगवान् श्रावस्ती में मृगारमाता के प्रासाद पूर्वाराम में विहार करते थे।
तब देवताओं को इन्द्र शक्र जहाँ भगवान् थे, वहाँ गया; जाकर भगवान् को अभिवादन कर एक ओर खडा हो गया। एक ओर खड़े देवेन्द्र शक्र ने भगवान् से यह कहा—
“कैसे भन्ते! भिक्षु संक्षेप में तृष्णा के क्षय द्वारा मुक्त हो, अत्यन्त-निष्ठ अत्यन्त योग-क्षेम (= कल्याण)-वाला, अत्यन्त ब्रह्मचारी, अत्यन्त पर्यवसान (= कर्तव्य जिसके समाप्त हो गये), देव-मनुष्यों में श्रेष्ठ होता है?”
“देवो के इन्द्र! भिक्षु यह सुने होता है—सारे धर्म (= पदार्थ) अभिनिवेश (= राग) करने लायक नहीं है। जब देवो के इन्द्र! भिक्षु यह भी सुने होता है—“सारे धर्म अभिनिवेश करने लायक नहीं है-’ वह सारे धर्मो को जानता है—‘सारे धर्मो को जानकर सब धर्मो को छोड़ता है। सारे धर्मो को छोडकर जिस किसी सुखा, दुःख या अ-दुःख-अ-सुखा वेदना को अनुभव करता है; उसमें वह अनित्यानुदर्शी (= यह अनित्य है, ऐसा समझने वाला) हो विहरता है, विराग-अनुदर्शी ॰, निरोध (= नाश)-अनुदर्शी, प्रतिनिस्सर्ग (= त्याग)-अनुदर्शी हो विहरता है। वह उन वेदनाओं में ॰ प्रतिनिस्सर्गानुदर्शी हो विहरते, लोक में किसी वस्तु का उपादान (= रागयुक्त ग्रहण) नहीं करता। उपादान न करने से (= बिछोह के) त्रास को नहीं पाता। परित्रास न पाने से इसी शरीर में परिनिर्वाण (= दुःख के सर्वथा अभाव) को प्राप्त होता है;—‘जन्म क्षीण हो गया, ब्रह्मचर्य समाप्त हो गया, करना था सो कर लिया, और कुछ (कर्तव्य) यहाँ के लिये नहीं रहा’—जानता है। देवों के इन्द्र! ऐसे भिक्षु संक्षेप में ॰ देव-मनुष्यों में श्रेष्ठ होता है।”
तब देवों का इन्द्र शक्र भगवान् के भाषण का अभिनंदन कर, अनुमोदन कर, भगवान् को अभिवादन कर, प्रदक्षिणा कर वहीं अन्तर्धान हो गया।
उस समय आयुष्मान् महामौद्गल्यायन भगवान् के अ-विदूर (= समीप) में बैठे थे। तब आयुष्मान् महामौद्गल्यायन को यह हुआ—‘क्या उस यक्ष (= देव) ने भगवान् के भाषण को समझकर अनुमोदित किया, या बिना (समझे)? क्यों न मै। उस यक्ष को पूछूँ, कि उस यक्ष ने भगवान् के भाषण को समझकर अनुमोदित किया, ॰?’ तब आयुष्मान् महामौद्गल्यायन, जैसे बलवान् पुरूष समेटी बाँह को (बिना प्रयास) फैला दे, और फैली बाँह को समेट ले, वैसे ही, मृगारमाता के प्रासाद पूर्वाराम से अन्तध्र्यान हो त्रायस्त्रिंश देव (-लोक) में प्रकट हुये।
उस समय देवों का इन्द्र शक्र एकपुंडरीक उद्यान में पाँच प्रकार के दिव्य वाद्यों से सम र्पित=समंगीभूत हो घिरा बैठा थां ॰ शक्र ने दूर से ही आयुष्मान् महामौद्गल्यायन को आते देखा। देखकर उन पाँच प्रकार के दिव्य वाद्यों को हटाकर, जहाँ आयुष्मान् महामौद्गल्यायन थे, वहाँ गया। जाकर आयुष्मान् महामौद्गल्यायन से यह बोला—
“आओ, मार्ष मौद्गल्यायन! स्वागत है मार्ष मौद्गल्यायन! चिरकाल के बाद मार्ष मौद्गल्याान! आपका…यहाँ आना हुआ। बैठिये मार्ष मौद्गल्यायन! यह आसन बिछा है।”
आयुष्मान् महामौद्गल्यायन बिछे आसन पर बैठ गये। देवों का इन्द्र शक्र भी एक नीचे आसन को लेकर एक ओर बैठ गया। एक ओर बैठै ॰ शक्र से आयुष्मान् महामौद्गल्यायन ने यह कहा—
“कौशिक! किस प्रकार भगवान् ने तुम्हें संक्षेप से तृष्णा-क्षय द्वारा मुक्ति के बारे में कहा है? अच्छा हो, हम भी उस कथा के श्रवण करने के भागी हों।”
“मार्ष मौद्गल्यायन! हम बहुकृत्य बहुकरणीय हैं; अपना करणीय (काम) तो थोडा ही है, त्रायस्त्रिंश देवों का ही करणीय (बहुत है)। और मार्ष मौद्गल्यायन! सु-श्रुत (= अच्छी प्रकार सुना), सुगृहीत=सु-मनसीकृत, सु-प्रधारित (बात) भी हमें शीघ्र ही भूल जाता है। मार्ष मौद्गल्यायन! पूर्वकाल में देवासुर-संग्राम छिडा था। उस संग्राम में, मार्ष मौद्गल्यायन! देव विजयी हुये, असुर पराजित हुये। सो मार्ष मौद्गल्यायन! उस संग्राम को जीत, विजित-संग्राम हो, लौटकर मैने वैजयन्त नाम प्रासाद को बनवाया। मार्ष मौद्गल्यायन! वैजयन्त प्रासाद के एक आसन (= तल) में सौ निर्यूह (= खंड) है। एक दिन निर्यूह में सात कूटागार हैं। एक एक कूटागार में सात अप्सरायें है। एक एक अप्सरा के पास सात सात परिचारिकायें है। मार्ष मौद्गल्यायन! क्या वैजयन्त प्रासाद की रमणीकता को देखना चाहते हो?”
आयुष्मान् महामौद्गल्यायन ने मौन रह स्वीकार किया।
तब देवों का इन्द्र शक्र आयुष्मान् महा मौद्गल्यायन को आगे आगे कर, जहाँ वैजयन्त प्रासाद था, वहाँ गया। ॰ शक्र की परिचारिकाओं ने दूर से ही आयुष्मान् महामौद्गल्यायन को आते देखा। देखकर, लजाती, शर्माती अपनी अपनी कोठरियों में घुस गई। बहु ससुर को देखकर जैसे लजाती शर्माती है, वैसे ही ॰ शक्र की परियाचरिकायें आयुष्मान् महामौद्गल्याायन को देख लजाती शर्माती अपनी अनी कोठरियों में घुस गई।
तब देवेन्द्र शक्र और महाराज वैश्रवण, आयुष्मान् महामौद्गल्यायन को वैजयन्त प्रासाद दिखाने टहलाने लगे—
“मार्ष मौद्गल्यायन! देखो वैजयन्त प्रासाद की इस रमणीकता को भी। मार्ष मौद्गल्यायन! देखो वैजयन्त प्रासाद की इस रमणीकता को।”
“पहिले पुण्य किये आयुष्मान् कौशिक यह (भवन) सोहता है।”
“मनुष्य भी थोडी रमणीकता देखकर कहते है—‘त्रायस्त्रिश देवों का (भवन) सोहता है; पहिले पुण्य किये आयुष्मान् कौशिक का यह (भवन) सोहता है’।”
तब आयुष्मान् महामौद्गल्यायन को एसे हुआ—‘यह यक्ष बहुत अधिक प्रमादी हो विहर रहा है; क्यों न मैं इस यक्ष को उद्वेजित करूँ।’
तब आयुष्मान् महामौद्गल्यायन ने ऐसी ऋद्धि प्रदर्शित की, कि वैजयन्त प्रासाद को पैर के अंगूठे से संकम्पित (= कम्पित)= संप्रकत्पित=संप्रबेधित कर दिया। तब ॰ शक्र वैश्रवण महाराज, और त्रायस्त्रिंश देव आश्चर्य-चकित…हो गये—‘अहो! श्रमण की महा-ऋद्धि-मत्ता=महानुभावता, जो कि (उसने) दिव्य-भवन को पैर को अंगूठे से संकम्पित ॰ कर दिया।
तब आयुष्मान् महामौद्गल्यायन ने ॰ शक्र को अद्विग्न रोमांचित जान, शक्र से यह कहा—
“कौशिक! किस प्रकार भगवान् ने तुम्हें ॰ मुक्ति के बारे में कहा ॰।”
“मार्ष मौद्गल्यायन! मैं जहाँ भगवान् थे, वहाँ, जाकर भगवान् को अभिवादन कर एक ओर खडा हो गया। एक ओर खड़े मैंने भगवान् से यह कहा—‘कैसे भन्ते! ॰ देव-मनुष्यों में श्रेष्ठ होता है’। मार्ष मौद्गल्यायन! इस प्रकार भगवान् ने मुझे ॰ मुक्ति के बारे में कहा।”
तब आयुष्मान् महामौद्गल्यायन ॰ शक्र के भाषण का अभिनंन अनुमोदन कर, जैसे बलवान् पुरूष समेटी बाँह को फैलादे ॰, वैसे ही त्रायस्त्रिंश देव (लोक) में अन्तर्धान हो, मृगारमाता के प्रासाद पूर्वाराम में प्रकट हुये। आयुष्मान् महामौद्गल्यायन के चले जाने के थोड़ी ही देर बाद ॰ शक्र की परिचारिकाओं ने देवेन्द्र, शक्र से पूछा—
“मार्ष! यही वह तुम्हारे शास्ता (= गुरू) थे?”
“मार्षो! यह मेरे शास्ता नहीं थे, यह मेरे सब्रह्मचारी (= गुरूभाई) आयुष्मान् महामौद्गल्यायन थे।”
“लाभ है, मार्ष! जबकि तेरे सब्रह्मचारी ऐसे महा-ऋद्धिमान् ऐसे महानुभाव है। अहो! वह तुम्हारे भगवान् शास्ता (कैसे होंगे)!!’
तब आयुष्मान् महामौद्गल्यायन, जहाँ भगवान् थे, वहीं गये, जाकर भगवान् को अभिवादन कर एक ओर बैठ गये। एक ओर बैठे आयुष्मान् महामौद्गल्यायन ने भगवान् से यह कहा—
“जानते हैं, भन्ते! अभी एक प्रसिद्ध महाप्रतापी यक्ष को भगवान् ने संक्षेप से तृष्णा-क्षय विमुक्ति बतलाया था?”
“जानता हूँ, मौगद्ल्यायन!—देवेन्द्र शक्र जहाँ मैं था, वहाँ आया। आकर मुझे अभिवादन कर एक ओर खडा हो गया। एक ओर खडे देवेन्द्र शक्र ने मुझसे यह कहा—॰ देव-मनुष्यों मंे श्रेष्ठ होता है। मौद्गल्यायन! मैं जानता हूँ—ऐसे मैने देवेन्द्र शक्र को संक्षेप से तृष्णा-क्षय-विमुक्ति को बतलाया था।”
भगवान् ने यह कहा, सन्तुष्ट हो आयुष्मान् महामौद्गल्यायन ने भगवान् के भाषण का अभिनंदन किया।