मज्झिम निकाय

56. उपालि-सुत्तन्त

ऐसा मैंने सुना—

एक समय भगवान् नालन्दा में प्रावारिक के आम्रवन में विहार करते थे।

उस समय निगंठ नात-पुत्त निगंठों (= जैन-साधुओं) की बडी परिषद् (= जमात) के साथ नालन्दा में विहार करते थे। तब दीर्घ-तवस्वी निग्र्रंथ (= जैन साधु) नालंन्दा में भिक्षाचार कर, पिंडपात खतम कर, भोजन के पश्चात् जहाँ प्रावारिक-आम्र-वन में भगवान् थे, वहाँ गया। जाकर भगवान् के साथ संमोदन (कुशल प्रश्न पूछ) कर, एक ओर खडा हो गया। एक ओर खडे हुए दीर्घ-तपस्वी निर्ग्रंथ को भगवान् ने कहा—

“तपस्वी! आसन मौजूद हैं, यदि इच्छा हा तो बैठ जाओ!”

ऐसा कहने पर दीर्घ-तपस्वी निर्ग्रंथ एक नीचा आसन ले एक ओर बैठ गया। एक ओर बैठे दीर्घ-तपस्वी निर्ग्रंथ से भगवान् बोले—

“तपस्वी! पापकर्म के करने के लिये, पाप-कर्म की प्रवृत्ति के लिये निग्र्रंन्थ ज्ञातृपुत्र कितने कर्मो का विधान करते हैं?”

“आवुस! गौतम! ‘कर्म ‘कर्म’ विधान करना निग्र्रंथ ज्ञातृपुत्र का कायदा (= आचिण्ण) नहीं है। आवुस! गौतम! ‘दंड’ ‘दंड’ विधान करना निगंठ नातपुत्त का कायदा है।”

“तपस्वी! तो फिर पाप-कर्म के करने के लिये=पाप-कर्म की प्रवृत्ति के लिये निगंठ नातपुत्त कितने ‘दंड’ विधान करते हैं?”

“आवुस! गौतम! पापकर्म के हटाने के लिये ॰ निगंठ नात-पुत्त तीन दंडों का विधान करते है। जैसे-काय-दंड, वचन-दंड, मन-दंड।”

“तपस्वी! तो क्या काय-दंड दूसरा है, वचन-दंड दूसरा है, मन-दंड दूसरा है?”

“आवुस! गौतम! (हाँ)! काय-दंड दूसरा ही है, वचन-दंड दूसरा ही, मन-दंड दूसरा ही है।”

“तपस्वी! इस प्रकार भेद किये, इस प्रकार विभक्त, इन तीनों दंडो में निगंठ नातपुत्त, पाप कर्म के करने के लिये, पापकर्म की प्रवृत्ति के लिये, किस दंड को महादोष-युक्त विधान करते हैं, काय-दंड को, या वचन-दंड को, या मन-दंड को?”

“आवुस गौतम! इस प्रकार भेद किये, इस प्रकार विभक्त, इन तीनों दंडों में निगंठ नात-पुत्त, पाप कर्म करने के लिये ॰ काय-दंड को महादोष-युक्त विधान करते हैं; वैसा वचन-दंड को नहीं, वैसा मन-दंड को नहीं।”

“तपस्वी! काय-दंड कहते हो?”

“आवुस! गौतम! काय-दंड कहता हूँ।”

“तपस्वी! काय-दंड कहते हो?”

“आवुस! गौतम! काय-दंड कहता हूँ।”

“तपस्वी! काय-दंड कहते हो?”

“आवुस! गौतम! काय-दंड कहता हूँ।”

इस प्रकार भगवान् ने दीर्घ-तपस्वी निगंठ को इस कथा-वस्तु (= बात) में तीन बार प्रतिष्ठापित किया।

ऐसा कहने पर दीर्घ-तपस्वी निगंठ ने भगवान् से कहा—

“तुम आवुस! गौतम! पाप-कर्म के करने के लिये ॰ कितने दंड-विधान करते हो?”

“तपस्वी! ‘दंड’ ‘दंड’ कहना तथागत का कायदा नहीं है, ‘कर्म’ ‘कर्म’ कहना तथागत का कायदा है।”

“आवुस! गौतम! तुम ॰ कितने कर्म विधान करते हो?”

“तपस्वी! मैं ॰ तीन कर्म बतलाता हूँ—जैसे काय-कर्म, वचन-कर्म, मन-कर्म।”

“आवुस! गौतम! काय-कर्म दूसरा ही है, वचन-कर्म दूसरा ही है, मन-कर्म दूसरा ही है।”

“तपस्वी! काय-कर्म दूसरा ही है, वचन-कर्म दूसरा ही है, मन-कर्म दूसरा ही है।”

“आवुस! गौतम! ॰ इस प्रकार विभक्त ॰ इन तीन कर्मों में, पाप-कर्म करने के लिये ॰ किसको महादोषी ठहराते हो—काय-कर्म को, या वचन-कर्म को, या मन-कर्म को?”

“तपस्वी! ॰ इस प्रकार विभक्त ॰ इन तीनों कर्मो में मन-कर्म को मैं ॰ महादोषी बतलाता हूँ।”

“आवुस! गौतम! मन-कर्म बतलाते हो?”

“तपस्वी! मन-कर्म बतलाता हूँ।”

“आवुस! गौतम! मन-कर्म बतलाते हो?”

“तपस्वी! मन-कर्म बतलाता हूँ।”

“आवुस! गौतम! मन-कर्म बतलाते हो?”

“तपस्वी! मन-कर्म बतलाता हूँ।”

इस प्रकार दीर्घ-तपस्वी निगंठ भगवान् ने इस कथा-वस्तु (= विवाद-विषय) में तीन बार प्रतिष्ठापित करा, आसन से उठ जहाँ निगंठ नात-पुत्त थे, वहाँ चला गया।

उस समय निगंठ नात-पुत्त, बालक (-लोणकार)-निवासी उपाली आदि की बडी गृहस्थ-परिषद् के साथ बैठे थे। तब निगंठ नात-पुत्त ने दूर से ही दीर्घ-तपस्वी निगंठ को आते देख, पूछा—

“हे! तपस्वी! मध्याह्न में तू कहाँ से (आ रहा है)?

“भन्ते! श्रमण गौतम के पास से आ रहा हूँ।”

“तपस्वी! क्या तेरा श्रमण गौतम के साथ कुछ कथा-संलाप हुआ?”

“भन्ते! हाँ! मेरा श्रमण गौतम के साथ कथा-संलाप हुआ।”

“तपस्वी! श्रमण गौतम के साथ तेरा क्या कथा-संलाप हुआ।”

तब दीर्घ-तपस्वी निगंठ ने भगवान् के साथ जो कुछ कथा-संलाप हुआ था, वह सब निगंठ नात-पुत्त से कह दिया।

“साधु! साधु!! तपस्वी! (यह ठीक है) जैसा कि शास्ता (= गुरू) के शासन (= उप— देश) को अच्छी प्रकार जानने वाले, बहुश्रुत श्रावक दीर्घ-तपस्वी निगंठ ने श्रमण गौतम को बतलाया। वह मुवा मन-दंड, इस महान् काय-दंड के सामने क्या शोभता है? पाप-कर्म के करने=पाप कर्म की प्रवृत्ति के लिये काय-दंड ही महादोषी है, वचन दंड, मन-दंड वैसे नहीं है।”

ऐसा कहने पर उपाली गृहपति ने निगंठ नात-पुत्त से यह कहा—

“साधु! साधु!! भन्ते तपस्वी! जैसा कि शास्ता के शासन के मर्मज्ञ, बहुश्रुत श्रावक भदन्त दीर्घ-तपस्वी निगंठ ने श्रमण गौतम को बतलाया। यह भुवा ॰। तो भन्ते! मै जाऊँ, इसी कथा-वस्तु में श्रमण गौतम के साथ विवाद रोपूँ? यदि मेरे (सामने) श्रमण गौतम वैसे (ही) ठहरा रहा, जैसा कि भदन्त दीर्घ-तपस्वी ने (उसे) ठहराया। तो जैसे बलवान् पुरूष लम्बे बाल वाली भेड को बालो से पकडकर निकाले, घुमावे, डुलावे; उसी प्रकार मैं श्रमण गौतम के वाद को…निकालूँगा, घुमाऊँगा, डुलाऊँगा। (अथवा) जैसे कि गहरे बलवान् शौडिक-कर्मकर (= शराय बनाने वाला) भट्टी के छन्ने (= सोंडिका-किलंज) को पानी (वाले) तालाब में फेंककर; कानों को पकड निकाले, घुमावे, डुलावे, ऐसे ही मैं ॰। (अथवा) जैसे बलवान् शराबी, बालक को कान से पकडकर हिलावे, ॰ डुलावे.., ऐसे ही मैं ॰। (अथवा) जैसे कि साठ वर्ष का पट्ठा हाथी गहरी पुष्करिणी में घुसकर सन-धोवन नामक खेल को खेले, ऐसे ही मैं श्रमण गौतम को सन-धोवन ॰। हाँ! तो भन्ते! मैं जाता हूँ। इस कथा-वस्तु में श्रमण गौतम के साथ वाद रोपूँगा।”

“जा गृहपति! जा, श्रमण गौतम के साथ कथा-वस्तु में वाद रोप। गृहपति! श्रमण गौतम के साथ मैं वाद रोपूँ, या दीर्घ-तपस्वी निगंठ रोपे, या तू।”

ऐसा कहने पर दीर्घ-तपस्वी निगण्ठ ने निगण्ठ नात-पुत्त को कहा—

“भन्ते! (आपको) यह मत रूचे, कि उपालि गृहपति श्रमण गौतम के पास जाकर वाद रोपे। भन्ते! श्रमण गौतम मायावी है, (मति) फेरने वाला माया जानता है, जिससे दूसरे तैर्थिकों (= पंथाइयो) के श्रावकों (= को अपनी ओर) फेर लेता है।”

“तपस्वी! यह संभव नहीं, कि उपाली गृहपति श्रमण गौतम का श्रावक हो जाय। संभव है कि श्रमण गौतम (ही) उपाली गृहपति का श्रावक हो जाय। जा गृहपति! श्रमण गौतम के साथ इस कथा-वस्तु में वाद रोप। गृहपति! श्रमण गौतम के साथ मैं वाद रोपूँ, या दीर्ध-तपस्वी निगंठ रोपे, या तू।”

दूसरी बार भी दीर्घ-तपस्वी निगंठ ने ॰। तीसरी बार भी ॰।

“अच्छा भन्ते!” कह, उपालि गृहपति निगंठ नात-पुत्त को अभिवादन कर प्रदक्षिणा कर, जहाँ प्रवारिक आम्रवन था, जहाँ भगवान् थे, वहाँ गया। जाकर भगवान् को अभिवादन कर एक ओर बैठ गया। एक ओर बैठे हुये उपालि गृहपति ने भगवान् से कहा—

“भन्ते! क्या दीर्घ-तपस्वी निगंठ यहाँ आये थे?”

“गृहपति! दीर्घ-तपस्वी निगंठ यहाँ आया था।”

“भन्ते! दीर्घ-तपस्वी निगंठ के साथ आपका कुछ कथा-संलाप हुआ?”

“गृहपति! दीर्घ तपस्वी निगंठ के साथ मेरा कुछ कथा-संलाप हुआ।”

“तो भन्ते! दीर्घ-तपस्वी निगंठ के साथ क्या कुछ कथा-संलाप हुआ?”

तब भगवान् ने दीर्घ-तपस्वी निगंठ के साथ जो कुछ कथा-संलाप हुआ था, उस सबको उपालि गृहपति से कह दिया। ऐसा कहने पर उपाली गृहपति ने भगवान् से कहा—

“साधु! साधु! भन्ते तपस्वी! जैसा कि शास्ता के शासन के मर्मज्ञ, बहु-श्रुत, श्रावक दीर्घ-तपस्वी निगंठ ने भगवान् को बतलाया!! यह मूर्दा मन-दंड इस महान् काया-दंड के सामने क्या शोभता है? पाप-कर्म की प्रवृत्ति के लिये काय-दंड ही महा-दोषी है; वैसा वचन-दंड नहीं है, वैसा मन-दंड नहीं है।”

“गृहपति! यदि तू सत्य मंे स्थिर हो मंत्रणा (= विचार) करे, तो हम दोनो का संलाप हो।”

“भन्ते! मैं सत्य में स्थिर हो मंत्रणा करूँगा। हम दोनों का संलाप हो।”

“क्या मानते हो गृहपति! (यदि) यहाँ एक बीमार=दुःखित भयंकर रोग-ग्रस्त शीत-जल-त्यागी उष्ण-जल-सेवी निगंठ……शील-जल न पाने के कारण मर जाये, तो निगंठ नात-पुत्त उसकी (पुनः) उत्पत्ति कहाँ बतलायेंगे?”

“भन्ते! (जहाँ) मनः-सत्व नामक देवता हैं; वह वहाँ उत्पन्न होगा।”

“सो किस कारण ?”

“भन्ते! वह मन से बँधा हुआ मरा है।”

“गृहपति! गृहपति! मन में (सोच) करके कहो। तुम्हारा पूर्व (पक्ष) से पश्चिम (पक्ष) नहीं मिलता, तथा पश्चिम से पूर्व नहीं ठीक खाता। और गृहपति! तुमने यह बात (भी) कही हैं—भन्ते! मैं सत्य में स्थिर हो मंत्रणा करूँगा, हम दोनों का संलाप हो।”

“और भन्ते! भगवान् ने भी ऐसा कहा है—पापकर्म करने के लिये ॰ काय-दंड ही महादोषी है, वैसा वचन-दंड….(और) मन-दंड नहीं?”

“तो क्या मानते हो गृह-पति! यहाँ एक चातुर्याम-संवर हो संवृत (= गोषित, रक्षित), सब वारि से निवारित, सब वारि (= वारितों) को निवारण करने में तत्पर, सब (पाप-) वारि से धुला हुआ, सब (पाप) वारि से छूटा हुआ, निग्र्रंथ (= जैन-साधु) है। वह आते जाते बहुत से छोटे-छोटे प्राणि-समुदाय को मारता है। गृहपति! निगंठ नात-पुत्त इसका क्या विपाक (= फल) बतलाते है?”

“भन्ते! अन्जान को निगंठ नात-पुत्त महादोष नहीं कहते।”

“गृहपति! यदि जानता हो।”—“(तब) भन्ते! महादोष होगा।”

‘गृहपति! जानने को निगंठ नात-पुत्त किसमें कहते है?”—“भन्ते! मन-दंड में।”

“गृहपति! गृहपति! मन में (सोच) करके कहो। ॰।”

“और भन्ते! भगवान् ने भी ॰।”

“तो गृहपति! क्या यह नालन्दा सुख-संपत्ति-युक्त, बहुत जनों वाली, (बहुत) मनुष्यों से भरी है?”—“हाँ भन्ते।”

“तो….गृहपति! (यदि) यहाँ एक पुरूष (नंगी) तलवार उठाये आये, और कहे—इस नालन्दा में जितने प्राणी हैं, मैं एक क्षण में एक मुहूर्त में, उन (सब) का एक माँस का खलियान, एक माँस का ढेर कर दूँगा। तो क्या गृहपति! वह पुरूष….एक माँस का ढेर कर सकता है?”

“भन्ते! दश भी पुरूष, बीस भी पुरूष, तीस॰, चालीस॰, पचास भी पुरूष, एक माँस का ढेर नहीं कर सकते, वह एक भुवा क्या….है।”

“तो…गृहपति! यहाँ एक ऋद्धिमान्, चित्त को वश में किया हुआ, श्रमण या ब्राह्मण आवे, वह ऐसा बोले—मैं इस नालंदा को एक ही मन के क्रोध से भसम कर दूँगा। तो क्या …गृहपति! वह श्रमण या ब्राह्मण ॰ इस नालंदा को (अपने) एक मन के क्रोध से भस्म कर सकता है?”

“भन्ते! दश नालन्दाओं को भी ॰ पचास नालन्दाओं को भी ॰ वह श्रमण या ब्राह्मण (अपने) एक के क्रोध से भस्म कर सकता है। एक मुई नालन्दा क्या है।”

“गृहपति! गृहपति! मन में (सोच) कर…कहो ॰।”

“और भगवान् ने भी ॰।”

“तो…गृहपति! क्या तुमनें दंडकारण्य, कलिंगारण्य, मेध्यारण्य (= मेज्झारंञ), भातंगारण्य का अरण्य होना सुना है?”—“हाँ, भन्ते! ॰।”

“तो…गृहपति! तुमने सुना है, कैसे दण्डकारण्य ॰ हुआ?”

“भन्ते? मैंने सुना है—ऋषियों के मन के-कोप से दंडकारण्य ॰ हुआ।”

“गृहपति! गृहपति! मन में (सोच) कर…कहो ॰। तुम्हारा पूर्व से पश्चिम नहीं मिलता, पश्चिम से पूर्व नहीं मिलता। और तुमने गृहपति! यह बात कही है—‘सत्य में स्थिर हो मैं भन्ते! मंत्रणा (= वाद) करूँगा, हमारा संलाप हो।”

“भन्ते! भगवान् की पहिली उपमा से ही मैं सन्तुष्ट=अभिरत हो गया था। विचित्र प्रश्नों के व्याख्यान (= पटिभान) को और भी सुनने की इच्छा से ही मैंने भगवान् को प्रतिवादी बनाना पसन्द किया। आश्चर्य! भन्ते!! आश्चर्य! भन्ते!! जैसे औंधे को सीधा कर दे ॰ आज से भगवान् मुझे सांजलि शरणागत उपासक धारण करें।”

“गृहपति! सोच-समझकर (काम) करों। तुम्हारे जैसे मनुष्यों का सोच-समझकर ही करना अच्छा होता है।”

“भन्ते! भगवान् के इस कथन से मैं और भी प्रसन्न-मन, सन्तुष्ट और अभिरत हुआ; जो कि भगवान् ने मुझे कहा—‘गृहपति! सोच-समझकर करो ॰।’ भन्ते! दूसरे तैर्थिक (= पंथाई) मुझे श्रावक पाकर, सारे नालन्दा में पताका उडाते—‘उपालि गृहपति हमारा श्रावक हो गया’। और भगवान् मुझे कहते हैं—‘गृहपति! सोच-समझकर करो॰’। भन्ते! यह दूसरी बार मैं भगवान् की शरण जाता हूँ, धर्म और भिक्षु संघ की भी ॰।”

“गृहपति! दीर्घ-काल से तुम्हारा कुल (= कुल) निगण्ठों के लिये प्याउ की तरह रहा है, उनके जाने पर ‘पिंड नहीं देना चाहिये’—यह मत समझना।”

“भन्ते! इससे और भी प्रसन्न-मन, सन्तुष्ट और अभिरत हुआ, जो मुझे भगवान् ने कहा—दीर्घकाल से तेरा घर ॰। भन्ते! मैंने सुना था कि श्रमण गौतम ऐसा कहता है—मुझे ही दान देना चाहिये, दूसरों को दान न देना चाहिये। मेरे ही श्रावकों को दान देना चाहिये, दूसरों को दान न देना चाहिये। मुझे ही देने का महा-फल होता है, दूसरों को देने का महा-फल नहीं होता। मेरे ही श्रावकों को देने का महा-फल होता है, दूसरों के श्रावकों को देने का महा-फल नहीं होता। और भगवान् तो मुझे निगण्ठों को भी दान देने को कहते है। भन्ते! हम भी इसे युक्त समझेंगे। भन्ते! यह मैं तीसरी बार भगवान् की शरण जाता हूँ ॰।”

तब भगवान् ने उपालि गृहपति को आनुपूर्वी-कथा कही ॰। जैसे कालिमा-रहित शुद्ध— वस्त्र अच्छी प्रकार रंग को पकडता है, इसी प्रकार उपालि गृहपति को उसी आसन पर विरज=विमल धर्म-चक्षु उत्पन्न हुआ—‘जो कुछ समुदय-धर्म है, वह सब निरोध-धर्म है’। तब उपालि गृहपति ने दृष्ट-धर्म हो भगवान् से कहा—

“भन्ते! अब हम जाते हैं, हम बहुकृत्य-बहुकरणीय है।”

“गृह-पति! जिसा तुम काल समझो (वैसा करो)।”

तब उपालि गृह-पति भगवान् के भाषण का अभिनन्दन कर, अनु-मोदनकर, आसन से उठ, भगवान् को अभिवादनकर, प्रदक्षिणाकर, जहाँ उसका घरथा, वहाँ गया। जाकर द्वारपाल से बोला—

“सौम्य! दौवारिक! आज से मैं निगण्ठों और निगण्ठियों के लिये द्वार बन्द करता हूँ, भगवान् के भिक्षु भिक्षुनी, उपासक और उपासिकाओं के लिये द्वार खोलता हूँ। यदि निगण्ठ आये, तो कहना—‘ठहरें भन्ते! आज से उपालि गृह-पवति श्रमण गौतम का श्रावक हुआ। निगंठो, निगंठियों के लिये द्वार बन्द है; भगवान् के भिक्षु, भिक्षुनी, उपासक, उपासिकाओं के लिये द्वार खुला है। यदि भन्ते! तुम्हे पिंड (= भिक्षा) चाहिये, यहीं ठहरे, (हम) यहीं ला देंगे।”

“अच्छा भन्ते!” (कह) दौवारिक ने उपालि गृह-पति को उत्तर दिया।

दीर्घ-तपस्वी निगंठ ने सुना—उपालि गृह-पति श्रमण गौतम का श्रावक हो गया’। तब दीर्घ-तपस्वी निगंठ, जहाँ निगंठ नात-पुत्त थे, वहाँ गया। जाकर निगंठ नात-पुत्त से बोलाः—

“भन्ते! मैने सुना है, कि उपालि गृह-पति श्रमण गौतम का श्रावक हो गया।”

“यह स्थान नहीं, यह अवकाश नही (= यह असम्भव) है, कि उपालि गृह-पति श्रमण गौतम का श्रावक हो जाये, और यह स्थान (= संभव) है, कि श्रमण गौतम (ही) उपालि गृहपति का श्रावक (= शिष्य) हो।”

दूसरी बार भी दीर्घ तपस्वी निगंठ ने कहा—॰।

तीसरी बार भी दीर्घ तपस्वी निगंठ ने ॰।

“तो भन्ते! मैं जाता हूँ, और देखता हूँ, कि उपालि गृह-पत श्रमण गौतम का श्रावक हो गया, या नहीं।”

“जा तपस्वी! देख कि उपालि गृहपति श्रमण गौतम का श्रावक हो गया, या नहीं।”

तब दीर्घ-तपस्वी निगंठ जहाँ उपालि गृहपति का घर था, वहाँ गया। द्वार-पाल ने दूर से ही दीर्घ-तपस्वी निगंठ को आते देखा। देखकर दीर्घ-तपस्वी निगंठ से कहा—

“भन्ते! ठहरो, मत प्रवेश करों। आज से उपालि गृहपति श्रमण गौतम का श्रावक हो गया ॰। यहीं ठहरों, यहीं तुम्हें पिंड ले आ देंगै।”

“आवुस! मुझे पिंड का काम नहीं है।”

“यह कह दीर्घ-तपस्वी निगंठ जहाँ नात-पुत्त थे, वहाँ गया। जाकर निगंठ नात-पुत्त से बोला—

“भन्ते! सच ही है। उपालि गृहपति श्रमण गौतम का श्रावक हो गया। भन्ते! मैंने तुम से पहिले ही न कहा था, कि मुझे यह पसन्द नहीं कि उपालि गृहपति श्रमण गौतम के साथ वाद करे। श्रमण गौतम भन्ते! मायावी है, आवर्तनी माया जानता है, जिससे दूसरे तैर्थिकों के श्रावकों को फेर लेता है। भन्ते! उपालि गृहपति को श्रमण गौतम ने आवर्तनी-माया से फेर लिया।”

“तपस्वी! यह…(संभव नहीं).. कि उपालि गृहपति श्रमण गौतम का श्रावक हो जाय ॰।”

दूसरी बार भी दीर्घ-तपस्वी निगंठ ने निगंठ नात-पुत्त से यह कहा—॰। तीसरी बार भी दीर्घ-तपस्वी ॰।

“तपस्वी! यह…(संभव नहीं)…॰। अच्छा तो तपस्वी! मैं जाता हूँ। स्वयं जानता हूँ, कि उपालि गृह-पति श्रमण गौतम का श्रावक हुआ या नहीं।”

तब निगंठ नात-पुत्त बडी भारी निगंठो की परिषद् के साथ, जहाँ उपालि गृहपति का घर था, वहाँ गया। द्वार-पाल ने दूर से आते हुये निगंठ नात-पुत्त को देखा। (और) कहा—

“ठहरे भन्त! मत प्रवेश करें। आज से उपालि गृहपति श्रमण गौतम का उपासक हुआ ॰। यहीं ठहरे, यहीं तुम्हे (पिंड) ले आ देंगे।”

“तो सौम्य दौवारिक! जहाँ उपालि गृहपति है, वहाँ जाओ। जाकर उपालि गृहपति को कहो—भन्ते! बडी भारी निगंठ-परिषद् के साथ निगंठ नात-पुतत फाटक के बाहर खडे हैं, (और) तुम्हे देखना चाहते है।”

“अच्छा भन्ते!”—निगंठ नात-पुत्त को कह (द्वारपाल) जहाँ उपालि गृहपति था, वहाँ गया। जाकर उपालि गृहपति से बोला—

“भन्ते! ॰ निगंठ नात-पुत्त। ॰”

“तौ सौम्य! दौवारिक! बिचली द्वार-शाला (= दालान) में आसन बिछाओ।”

“अच्छा भन्ते!”—उपालि गृहपति से कह, बिचली द्वार-शाला में आसन बिछा—

“भन्ते! बिचली द्वार-शाला में आसन बिछा दिये। अब (आप) जिसका काल समझे।”

तब उपालि गृह-पति जहाँ बिचली द्वार-शाला थी, वहाँ गया। जाकर जो वहाँ अग्र=श्रेष्ठ, उत्तम=प्रणीत आसन था, उस पर बैठकर दौवारिक से बोला—

“तो सौम्य दौवारिक! जहाँ निगंठ नात-पुत्त हैं, वहाँ जाओ, जाकर निगंठ नात-पुत्त से यह कहो—‘भन्ते! उपालि गृहपति कहता है—यदि चाहे तो भन्ते! प्रवेश करें।”

“अच्छा भन्ते!”—(कह) ..दौवारिक.. ..निगंठ नात-पुत्त से कहा—

“भन्ते! उपालि गृहपति कहते हैं—यदि चाहें तो, प्रवेश करें।”

निगंठ नात-पुत्त बडी भारी निगंठ-परिषद् के साथ जहाँ बिचली द्वारशाला थी, वहाँ गये। पहिले जहाँ उपालि गृहपति, दूर से ही निगंठ नात-पुत्त को आते देखता; देखकर अगवानी कर वहाँ जो अग्र=श्रेष्ठ, उत्तम=प्रणीत आसन होता , उसे (अपनी) चादर से पोछकर, उस बैठाता था। सो आज जो वहाँ ॰ उत्तम ॰ आसन था, उस पर स्वंय बैठकर निगंठ नात-पुत्त से बोला—

“भन्ते! आसन मौजूद हैं, यदि चाहे तो बैठें।”

ऐसा कहने पर निगंठ नात-पुत्त उपालि-गृहपति से कहा—

“उन्मत्त हो गया है गृहपति! जड हो गया है गृहपति! तू—‘भन्ते! जाता हूँ श्रमण-गौतम के साथ वाद रोपूँगा’—(कहकर) जाने के बाद बडे भारी वाद के संघाट (= जाल) में बँधकर लौटा है। जैसे कि अंड (= अंडकोश)-हारक निकाले अंडो के साथ आये; जैसे कि अक्षि (= आँख)-हारक पुरूष निकाली आँख के साथ आये, वेसे ही गृहपति! तू—‘भन्ते! जाता हूँ, श्रमण गौतम के साथ वाद रोपूँगा’ (कहकर) जा, बडे भारी वाद-संघाट में बँकर लौटा है। गृहपति! श्रमण गौतम ने आवर्तनी-माया से तेरी (मत) फेर ली है।”

“सुन्दर है, भन्ते! आवर्तनी माया। कल्याणी है भन्ते! आवर्तनी माया। (यदि) मेंरे प्रिय जाति भाई भी इस आवर्तनी-माया द्वार फेर लिये जाँये, (तो) मेरे प्रिय जाति-भाइयों का दीर्घ-काल तक हित-सुख होगा। यदि भन्ते! सभी क्षत्रिय इस आवर्तनी-माया से फेर लिये जावें, तो सभी क्षत्रियों का दीर्घ-काल तक हित-सुख होगा। यदि सभी ब्राह्मण ॰। यदि सभी वैश्य ॰। सदि सभी शुद्र ॰। यसदि देव-मार-ब्रह्मा-सहित सारा लोक, श्रमण-ब्राह्मण-देव-मनुष्य सहित सारी प्रजा (= जनता) इस आवर्तनी माया से फेर जी लाय, तो…(उसका) दीर्घकाल तक हित-सुख होगा। भन्ते! आपको उपमा कहता हूँ, उपमा से भी कोई कोई विज्ञ पुरूष भाषण का अर्थ समझ जाते हैं—

“पूर्व काल में भन्ते! किसी जीर्ण=बूढे़=महल्लक ब्राह्मण की एक नव-वयस्का (= दहर) माणविका (= तरूण ब्राह्मणी) भार्या गर्भिणी आसन्न-प्रसवा हुई। तब भन्ते! उस मााण्विका ने ब्राह्मण से कहा—ब्राह्मण! जा बाजार से एक वानर का बच्चा (खिलौना) खरीद ला, वह मेरे कुमार (= बच्चे) का खेल होगा।”

“ऐसा बोलने पर भन्ते! उस ब्राह्मण ने उस माणविका से कहा—भवती (= आप)! ठहरिये, यदि आप कुमार जनेंगी, तो उसके लिये मैं बाजार से मर्कट-शावक (खिलौना) खरीद कर लादूँगा, जो आपके कुमार का खेल होगा। दूसरी बार भी भन्ते! उस माणविका ने ॰। तीसरी बार भी ॰। तब भन्ते! उस माणविका में अति-अनुरक्त=प्रतिबद्ध-चित्त उस ब्राह्मण ने बाजार से मर्कट-शावक खरीदकर, लाकर, उस माणविका से कहा—‘भवती! बाजार से यह तुम्हारा मर्कट-शावक खरीद कर लाया हूँ, यह तुम्हारे कुमार का खिलौना होगा।’ ऐसा कहने पर भन्ते! जब माणविका ने उस ब्राह्मण से कहा—‘ब्राह्मण! इस मर्कट, शावक को लेकर, वहाँ जाओ जहाँ रक्त-पाणि रजक-पुत्र (= रंगरेजा का बेटा) है। जाकर रक्त-पाणि, रजक-पुत्र से कहो—सौम्य! रक्तपाणि! मैं इस मर्कट-शावक को पीतावलेपन रंग से रंगा मला, दोनों ओर पालिश किया हुआ चाहता हूँ।’ तब भन्ते! उस माणविका में अति-अनुरक्त=प्रतिबद्ध-चित्त वह ब्राह्मण उस मर्कट-शावक को लेकर जहाँ रक्त-पाणि रजक-पुत्र था, वहाँ गया, जाकर रक्त-पाणि रजक-पुत्र से बोला—‘सौम्य! रक्तपाणि! इस ॰’। ऐसा कहने पर रक्त-पाणि रजक-पुत्र ने उस ब्राह्मण से कहा—‘भन्ते! यह तुम्हारा मर्कट-शावक न रंगने योग्य है, न मलने योग्य है, न माँजने योग्य है।’ इसी प्रकार भन्ते! बाल (= अज्ञ) निगंठो का वाद (सिद्धान्त), बालों (= अज्ञांे) को रंजन करने लायक है, पंडित को नहीं। (यह) न परीक्षा (अनुयोग) के योग्य है, न मीमांसा के योग्य है। तब भन्ते! वह ब्राह्मण दूसरे समय नया धुस्से का जोडा ले, जहाँ रक्त-पाणि रजकपुत्र था, वहाँ गया। जाकर रक्त-पाणि रजक-पुत्र से बोला—‘सौम्य! रक्त-पाणि! धुस्से का जोडा पीतावलेपन (= पीले) रंग से रंगा, मला, दोनों ओर से माँजा (= पालिश किया) हुआ चाहता हूँ’। ऐसा कहने पर भन्ते! रक्त-पाणि रजक-पुत्र ने उस ब्राह्मण से कहा—‘भन्ते! यह तुम्हारा धुस्सा-जोडा रँगने योग्य है, मलने योग्य भी है, माँजने योग्य भी है।’ इसी तरह भन्ते! उस भगवान् अर्हत् सम्यक् संबुद्ध का वाद, पंडितों को रंजन करने योग्य है, बालों (= अज्ञों) को नहीं। (यह) परीक्षा ओर मीमांसा के योग्य है।”

“गृहपति! राज-सहित सारी परिषद् जानती है, कि उपालि गृह-पति निगंठ नातपुत्त का श्रावक है। (अब) गृहपति! तुस्के किसका श्रावक समझे। ऐसा कहने पर उपालि गृहपति आसन से उठकर, (दाहिने कन्धे को नंगाकर) उत्तरासंग (= चद्दर) को, एक कंधे पर कर, जिधर भगवान् थे उधर हाथ जोड, निगंठ जात-पुत्त से बोला—“भन्ते! सुनों मैं किसका श्रावक हूँ?—

धीर विगत-मोह खंडित-कील विजित-विजय,
निर्दुःख सु-सम-चित्त वृद्ध-शील सुन्दर-प्रज्ञ,
विश्व के तारक, वि-मल—उस भगवान् का मैं श्रावक हूँ।।1।।
अकथ-कथी, संतुष्ट, लोक-भोग को वमन करने वाले, मुदित,
श्रमण-हुये-मनुज अंतिम-शरीर-नर,
अनुपम, वि-रज—उस भगवान् का मैं श्रावक हूँ।।2।।
संशय-रहित, कुशल, विनय-युक्त-बनाने वाले, श्रेष्ठ-सारथी,
अनुत्तर (= सर्वोत्तम), रूचिर-धर्म-वान्, निराकांक्षी, प्रभाकर,
मान-छेदक, वीर—उस भगवान् का मैं श्रावक हूँ।।3।।
उत्तम (= निसम) अ-प्रमेय, गम्भीर, मुनित्व-प्राप्त,
क्षेमंकर, ज्ञानी, धर्मार्थ-वान्, संयत-आत्मा,
संग-रहित, मुक्त—उस भगवान् का मैं श्रावक हूँ।।4।।
नाग, एकांत-आसन-वान, संयोजन (= बन्धन)-रहित, मुक्त,
प्रति-मंत्रक (= वाद-दक्ष), धौत, प्राप्त-ध्वज, वीत-राग,
दान्त, निष्प्रपंच, उस भगवान् का मैं श्रावक हूँ।।5।।
ऋषि-सत्तम, अ-पाखंडी, त्रि-विद्या-युक्त ब्रह्म (= निर्वाण)-प्राप्त,
स्रातक, पदक (= कवि), प्रश्रब्ध, विदित-वेद,
पुरन्दर, शक्र—उस भगवान् का मैं श्रावक हूँ।।6।।
आर्य, भावितात्मा, प्राप्तव्य-प्राप्त वैयाकरण,
स्मृतिवान्, विपश्यी, अन-अभिमानी, अन्-अवनत,
अ-चंचल, वशी—उस भगवान् का मैं श्रावक हूँ।।7।।
सम्यग्-गत, ध्यानी, अ-लग्न-चित्त (= अन्-अनुगत-अन्तर), शुद्ध।
अ-सित (= शुद्ध), अ-प्रहीण, प्रविवेक-प्राप्त, अग्र-प्राप्त,
तीर्ण, तारक—उस भगवान् का मैं श्रावक हूँ।।8।।
शांत, भूरि (= बहु)-प्रज्ञ, महा-प्रज्ञ विगत-लोभ,
तथागत, निपुण—उस भगवान् का मैं श्रावक हूँ।।9।।
तृष्णा-रहित, बुद्ध, धूम-रहित, अ-लिप्त,
पूजनीय=यक्ष, उत्तम-पुद्गल, अ-तुल,
महान् उत्तम-यश-प्राप्त—उस भगवान् का मैं श्रावक हूँ।।10।।”

“गृहपति! श्रमण गौतम के (यह) गुण तुझे कब (से) सूझे?”

“भन्ते! जैसे नाना पुष्पों की एक पुष्प-राशि (ले) एक चतुर माली या माली का अन्तेवासी विचित्र माला गूँथे; उसी प्रकार, भन्ते! वह भगवान् अनेक वर्ण (= गुण) वाले अनेक शत वर्णवाले हैं। भन्ते! प्रशंसनीय की प्रशंसा कौन न करेगा।?”

निगंठ नात-पुत्त ने भगवान् के सत्कार को न सहरकर, वहीं मुँह से गर्म लोहू फेंक दिया।