मज्झिम निकाय

62. महा-राहुलोवाद-सुत्तन्त

ऐसा मैंने सुना—

एक समय भगवान् श्रावस्ती अनाथ-पिंडिक के आराम, जेतवन में विहार करते थे।

तब पूर्वाह्न समय भगवान् पहिन कर, पात्र-चीवर ले श्रावस्ती में पिंड (-चार) के लिये प्रविष्ट हुये। आयुष्मान् राहुल भी पूर्वाह्न समय पहिनकर पात्र-चीवर ले भगवान् के पीछे पीछे हो लिये। भगवान् ने देखकर, आयुष्मान् राहुल को संबोधित किया—

“राहुल! जो कुछ रूप है—भूत-भविष्य-वर्तमान का शरीर के भीतर (= अध्यात्म) का, या बाहर का, महान् या सूक्ष्म, अच्छा या बुरा, दूरी या समीप का—सभी रूप ‘न यह मेरा है’, ‘न मैं यह हूँ’, ‘न यह मेरा आत्मा है’, इस प्रकार यथार्थ जानकर देखना (= समझना) चाहिये।”

“रूप ही को भगवान्! रूप ही को सुगत!”

“रूप को भी राहुल! वेदना को भी, संज्ञा को भी, संस्कार को भी, विज्ञान को भी।”

तब आयुष्मान् राहुल—‘कौन आज भगवान् का उपदेश सुनकर, गाँव में पिंड-चार के लिये जाये?’—(सोच) वहाँ से लौटकर एक वृक्ष के नीचे, आसन मार, शरीर को सीधा रख, स्मृति को सन्मख ठहरा बैठ गये। भगवान् ने आयुष्मान् राहुल को वृक्ष के नीचे ॰ बैठा देखा। देखकर संबोधित किया—

“राहुल! आणापान-सति (= प्राणायाम) भावना की भावना (= ध्यान) कर। राहुल! आणापान सति (= आनापान महा-स्मृति) भावना किये जाने पर महाफलदायक, बडे माहात्म्यवाली होती है।”

तब आयुष्मान् राहुल सायंकाल को ध्यान से उठ, जहाँ भगवान् थे वहाँ गये। जाकर भगवान् को अभिवादन कर एक ओर बैठ गये। एक ओर बैठे हुये आयुष्मान् राहुल ने भगवान् से यह कहा—

“भन्ते! किस प्रकार भावना की गई, किस प्रकार बढाई गई, आणापान-सति महा-फलदायक, बडे माहात्म्यवाली होती है?”

“राहुल! जो कुछ भी शरीर में (= अध्यात्म), प्रतिशरीर में (= प्रत्यात्म) कर्कश, खर्खरा है, जैसे—केश, लोभ, नख, दाँत, चमडा, मांस, स्नायु, अस्थि, अस्थि-मज्जा, बुक्क, हृदय, यकृत्, क्लोमक, प्लीहा, फुफ्फुस, आँत, पतली आँत (= अंत-गुण=आँत की रस्सी), पेट का मल और जो कुछ और भी शरीर में, प्रतिशरीर में कर्कश ॰ है। राहुल! यह सब! अध्यात्म पृथ्वी-धातु कहलाती है। जो कुछ कि अध्यात्म पृथ्वी धातु है, और जो कुछ बाह्य; यह (सब) पृथिवी धातु, पृथिवी-धातु ही है। उसको ‘यह मेरी नहीं’, ‘यह मैं नहीं हूँ’, ‘यह मेरा आत्मा नहीं है’ —इस प्रकार यथार्थतः जानकर देखना चाहिये। इस प्रकार इसे यथार्थतः अच्छी प्रकार जानकर देखने से (भिक्षु) पृथिवी-धातु से उदास होता है, पृथिवी-धातु से चित्त को विरक्त करता है।

“क्या है राहुल! आपधातु? आप (= जल) धातु (दो) हैं—आध्यात्मिक (= शरीर में की) और बाह्य। क्या है आध्यात्मिक आप-धातु ॰। ॰ तेज-धातु ॰। ॰ वायु-धातु ॰।

“क्या है राहुल! आकाश-धातु?—आकाश-धातु आध्यात्मिक भी है, औरा बाह्य भी।“राहुल! आध्यात्मिक आकाश-धातु क्या है?—जो कुछ शरीर में, प्रतिशरीर में आकाश या आकाश-विषयक है, जैसे कि-कर्ण-छिद्र, नासिका-छिद्र, मुख-द्वार जिससे अन्न-पान खादन-आस्वादन किया जाता है; और जहाँ खाना-पीना…ठहरता है, और जिससे कि अधोभाग से खाया-पिया…बाहर निकलता है। और जो कुछ और भी शरीर में प्रति-शरीर में आकाश या आकाश-विषयक है। यह सब राहुल! आध्यात्मिक आकाश-धातु कही जाती है। जो कुछ आध्यात्मिक आकाश-धातु है, और जो कुछ बाह्य आकाश-धातु है, वह सब आकाश-धातु ही है। ‘वह न मेरी है’ ॰ । ॰।

“राहुल! पृथिवी-समान भावना की भावना (= ध्यान) कर। पृथिवी-समान भावना की भावना करते हुये, राहुल! तेरे चित्त को, दिल को अच्छे लगने वाले स्पर्श—चित्त को चारों ओर से पकडकर न चिमटेंगें। जैसे राहुल! ‘पृथिवी में शुचि (= पवित्र वस्तु) भी फेंकते हैं’, अशुचित भी फेंकते है। पाखाना भी ॰, पेशाब ॰, कफ ॰, पीब ॰, लोहू॰। उससे पृथिवी दुःखी नहीं होती, …ग्लानि नहीं करती, घृणा नहीं करती; इसी प्रकार; तू राहुल! पृथिवी-समान भावना की भावना कर। पृथिवी-समान भावना करते राहुल! तेरे चित्त को अच्छे लगने वाले स्पश्र ॰ न चिमटेंगे।

“आप (= जल)-समान ॰। जैसे राहुल! जल में शुचि भी धोते हैं ॰।

“तेज (= अग्नि)-समान ॰। जैसे राहुल! तेज शुचि को भी जलाता है ॰।

“वायु-समान ॰ जेसे राहुल! वायु शुचि के पास भी बहता है ॰।

“आकाश-समान ॰। जैसे राहुल! आकाश किसी पर प्रतिष्ठित नहीं। इसी प्रकार तू राहुल! आकाश-समान भावना की भावना कर। राहुल! आकाश-समान भावना की भावना करने पर, उत्पन्न हुये मन को अच्छे लगने वाले स्पर्श, चारों ओर से पकडकर चित्त को न चिमटेंगे।

“राहुल! मैत्री (= सबको मित्र समझना)-भावना की भावना कर। मैत्री-भावना की भावना करने से राहुल! जो व्यावाद (= द्वेष) है, उससे छूट जायेगा।

“राहुल! करूणा-(= सारे प्राणियों पर दया करना) भावना की भावना कर। करूणा भावना की भावना करने से राहुल! जो तेरी विहिंसा (= पर-पीडा-करण-इच्छा) हैं, वह छूट जायगी।

“राहुल! मुदिता (= सुखी देख प्रसन्न होना)-भावना की भावना कर।॰ राहुल! जो तेरी अ-रति (= मन न लगना) है वह हट जायेगी।

“राहुल! उपेक्षा (= शत्रु की शत्रुता की उपेक्षा)-भावना की भावना कर। ॰ जो तेरा प्रतिघ (= प्रतिहिंसा) है, वह हट जायेगा।

“राहुल! अ-शुभ (= सभी भोग बुरे हैं)-भावना की भावना कर। ॰ जो तेरा राग है, वह चला जायगा।

“राहुल! अ-नित्य-संज्ञा (= सभी पदार्थ अ-नित्य हैं)-भावना की भावना कर। ॰ जो तेरा अस्मिमान (= अहंकार) है, वह छूट जायेगा।

“राहुल! आणापान-सति (= प्राणायाम)-भावना की भावना कर। आणा-पान-सति भावना करना बढाना, राहुल! महा-फल-प्रद बडे माहात्म्यवाला है। राहुल! आणा-पान-सति भावना भावित होने पर, बढाई जाने पर, कैसे महा-फल-प्रद॰ होती है?—राहुल! भिक्षु अरण्य में वृक्ष के नीचे, या शून्य-गृह में आसन मारकर, शरीर को सीधा धारण कर, स्मृति को सन्मुख रख, बैठता है। वह स्मरण रखते साँस छोडता है, स्मरण रखते साँस लेता है, लम्बी साँस छोडते ‘लम्बी साँस छोड रहा हूँ’—जानता है। लम्बी साँस लेते ‘लम्बी साँस ले रहा हूँ’—जानता है। छोटी साँ छोडते ॰। छोटी साँस लेते ॰। ‘सारे काम को अनुभव (= प्रतिसंवेदन) करते साँस छोड’—सीखता है। ‘सारे काम को अनुभव करते ‘साँस लूँ’—सीखता है। काया के संस्कारों खाज आदि को दबाते हुये साँस छोडूँ, ॰ ॰ साँस लू’—सीखता है। ‘प्रीति को अनुभव करते साँस छोडूँ व। ‘॰ साँस लूँ’ सीखता है। ‘सुख अनुभव करते ॰’। ‘चित्त के संस्कार को अनुभव करते ॰। ‘चित्त के संस्कार को दबाते हुये ॰। ‘चित्त को अनुभव करते ॰’। ‘चित्त को प्रमोदित करते ॰। ‘चित्त को समाधान करते ॰। ‘चित्त को (राग आदि से) विमुक्त करते ॰। ‘(सब पदार्थो को) अनित्य देखने-वाला हो ॰। ‘(सब पदार्थो में) विराग की दृष्टि में ॰। ‘(सब पदार्थो में) निरोध (= विनाश) की दृष्टि से ॰। ‘(सब पदार्थो में) परित्याग की दृष्टि से साँस छोडूँ’—सीखता है। ‘परित्याग की दृष्टि से साँस लूँ’—सीखता है। राहुल! इस प्रकार भावना की गई, बढाई गई आणा-पान-सति महा-फल-दायक, और बडे माहात्म्य वाली होती है। राहुल! इस प्रकार भावना की गई, बढाई गई आणा-पान-सति से जो वह अन्तिम आश्वास (= साँस छोडना) प्रश्वास (= साँस लेना) हैं, वह भी विदित होकर, लय (= निरूद्ध) होते हैं, अ-विदित होकर नहीं।”

भगवान् ने यह कहा, आयुष्मान् राहुल ने संतुष्ट हो, भगवान् के भाषण का अभिनन्दन किया।