मज्झिम निकाय

64. महा-मालुंक्य-सुत्तन्त

ऐसा मैंने सुना—

एक समय भगवान् श्रावस्ती में अनाथपिंडिक के आराम जेतवन में विहार करते थे।

वहाँ भगवान् ने भिक्षुओं को संबोधित किया-” “भिक्षुओ!”

“भदन्त!”— (कह) उन भिक्षुओं ने भगवान् को उत्तर दिया।

भगवान् ने यह कहा—“याद है न भिक्षुओ! तुम्हें, मेरे उपदेशे पाँच अवरभागीय संयोजन?”

ऐसा पूछने पर आयुष्मान् मालुंक्यपुत्त ने भगवान् से यह कहा—“भन्ते! याद है, मुझे भगवान् के उपदेशे पाँच अवर-भागीय संयोजन।”

“मालुंक्यपुत्त! तो मेरे उपदेश तुझे कैसे याद हैं ॰?”

“भन्ते! (1) सत्काय-दृष्टि (= नित्य-आत्मवाद) को मैंने भगवान् का उपदेशा अवरभागीय (= ओरंभागीय)-संयोजन धारण किया है। (2) विचिकित्सा (= संशय) को ॰। (3) शीलव्रत परामर्श (= शील और व्रत को ही सब कुछ मानना) को ॰। (4) कामच्छन्द (= भोग में अनुराग) को ॰। (5) व्यापाद को ॰।

“मालुंक्यपुत्त! इस प्रकार पाँच अवरभागीय-संयोजनों को किसे उपदेश देते तूने मुझे सुना? मालुंक्यपुत्त! अन्य दूसरे तीर्थ (= मत) के परिब्राजक ऐसे बच्चों के बहलावे से बहलाते है।…उतान (ही) सो सकने वाले अबोध छोटे बच्चे को सत्काय (= आत्म-वाद) भी नहीं होता, फिर कहाँ से उसे सत्काय-दृष्टि उत्पन्न होगी? (हाँ) सत्काय-दृष्टि का अनुशय (= संस्कार) तो रहता है, उसके साथ चिमटा। ॰ छोटे बच्चे को धर्म (= मानसिक विचार) भी नहीं होते, कहाँ से उसे विचिकित्सा उत्पन्न होगी? (हाँ) विचिकित्सा का अनुशय तो रहता है, उसके (मन के) साथ चिमटा। ॰ छोटे बच्चे को शील (= सदाचार) भी नहीं होता, कहाँ से उसे शीलों में शीलव्रत-परामर्श उत्पन्न होगा, शील-व्रत-परामर्श-अनुशय तो रहता है ॰। ॰ छोटे बच्चे को काम भी नहीं तोते, कहाँ से उसे कामों में कामच्छन्द उत्पन्न होगा? ॰ कामच्छन्दानुशय तो रहता है ॰। ॰ छोटे बच्चे को शक्ति भी नहीं होती, कहाँ से उसे व्यापाद (= उत्पीडनेच्छा) उत्पन्न होगा? ॰ व्यापाद-अनुशय तो रहता है उसके साथ चिमटा। मालुंक्यपुत्त! अन्य दूसरे तीर्थवाले परिब्राजक ऐसे बच्चों को बहलावे से बहलाते हैं।”

ऐसा कहने पर आयुष्मान् आनन्द ने भगवान् से यह कहा—

“भगवान्! इसी का काल है, सुगत! इसी का काल है, कि भगवान् पाँच अवरभागीय-संयोजनों का उपदेश करें, भगवान् से सुनकर भिक्षु धारण करेंगे।”

“तो आनन्द! सुनों, अच्छी तरह मन में करो, कहता हूँ।”

“अच्छा, भन्ते!—(कह) आयुष्मान् आनन्द ने भगवान् को उत्तर दिया।

भगवान् यह कहा—“यहाँ आनन्द! आर्यो के दर्शन से वंचित ॰ अज्ञ, अनाडी सत्काय-दृष्टि से पर्युस्थित=सत्काय-दृष्टि से परेत (= व्याप्त) चित्त से विहरता है। वह उत्पन्न सत्कायदृष्टि से निकलने के (रास्ते को) ठीक से नहीं जानता। उसकी वह न हटाई (= अप्रति-विनीत), दृढताप्राप्त सत्काय-दृष्टि अवरभागीय-संयोजन है। वह विचिकित्सा से पर्युस्थित, विचिकित्सा से व्याप्त-चित्त हो विहरता है। वह उत्पन्न विचिकित्सा से निकलने के (रास्ते को) ठीक से नहीं जानता। उसकी वह न हटाई, दृढता-प्राप्त विचिकित्सा अवरभागीय संयोजन है। वह शील-व्रत-परामर्श से ॰। ॰ काम-राग से (= कामाच्छन्द) ॰। ॰ व्यापाद ॰।

“और आनन्द! आर्यों के दर्शन से अभिज्ञ, आर्यधर्म से परिचित, आर्यधर्म में सुविनित (= सुशिक्षित), सत्पुरूषों के दर्शन से अभिज्ञ, सत्पुरूष-धर्म से परिचित, सत्पुरूष धर्म में सुविनित आर्य श्रावक सत्काय-दृष्टि से पर्युत्थित=सत्काय-दृष्टि से व्याप्त चित्त हो नहीं विहरता। वह उत्पन्न हुई सत्काय-दृष्टि से कलने के (रास्ते को) ठीक से जानता है; (जिसके कारण) उसकी वह सत्काय-दृष्टि अनुशय (= संस्कार)-रहित बन नष्ट हो जायेगी। वह विचिकित्सा से ॰। वह शीलव्रत-परामर्श से ॰। वह काम-राग से ॰। वह व्यापाद से ॰।

“आनन्द! पाँच अवरभागीय-संयोजनों के प्रहाण (= नाश) के लिये जो मार्ग है=जो प्रतिपद् है, …उसके बिना वह पाँच अवरभागीय-संयोजनों को जानेगा, देखेगा, या नाशेगा, यह सम्भव नहीं। जैसे, आनन्द! सारवान् खडे महावृक्ष की छाल को बिना काटे, गुद्दे (= फेग्गु) को बिना काटे, सार का काटना हो सकेगा, यह संभव नहीं; ऐसे ही आनन्द! पाँच अवरभागीय-संयोजनों के प्रहाण के लिये ॰ सम्भव नहीं। आनन्द! ॰ जो मार्ग है=जो प्रतिपद् है, उसे पाकर यह पाँच अवरभागीय-संयोजनों को जानेगा ॰, यह सम्भव है। जैसे, आनन्द! सारवान् खडे महावृक्ष की छाल को काटकर, गुद्दे को काटकर सार का काटना होगा, यह संभव है; ऐसे ही आनन्द! ॰। जैसे, आनन्द! गंगानदी जल से करार तक भरी काक-पेया (= करार पर बैठे बैठे कौये के पीने योग्य, लबालब्) हो; तब एक दुर्बल पुरूष (यह कहता) आवे—मैं इस गंगानदी के प्रवाह को बाँह से तिर्छे काटकर; सकुशल पार चला जाऊँगा। (और) वह गंगानदी के प्रवाह को बाँह से तिर्छे काटकर सकुशल पार नहीं जा सके। ऐसे ही आनन्द! सत्काय के निरोध (= नाश) के लिये धर्म-उपदेश किये जाते समय जिसका चित्त प्रसन्न नहीं होता=प्रस्कंदित नहीं होता, स्थिर नहीं होता, विमुक्त नहीं होता; उसे दुर्बल पुरूष की भाँति जानना चाहिये। जैसे आनन्द! गंगानदी जल से करार तक भरी, काक-पेया हो; तब एक बलवान् पुरूष (यह कहता) आवे—मैं ॰ पार कर जाऊँगा। (और) वह ॰ सकुशल पार जा सके। ऐसे ही आनन्द! सत्काय-निरोध के लिये धर्म-उपदेश के समय जिसका चित्त प्रसन्न होता है ॰ उसे बलवान् पुरूष की भाँति जानना चाहिये।

“आनन्द! पाँच अवरभागीय-संयोजनों के नाश के लिये क्या मार्ग है=क्या प्रतिपद् हैं?—यहाँ आनन्द! भिक्षु उपधि (= विषय) को त्यागकर, अकुशल-धर्मो (= बुराइयों) को हटाकर कायिक-दौप्ठुल्यां (= चंचलता) को सर्वथा शांत कर, कामों से विरहित ॰ प्रथम-ध्यान को प्राप्त हो विहरता है। वह जो कुछ रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार और विज्ञान से संबंध रखने वाले धर्म (= पदार्थ) हैं, उन्हंे अनित्य, दुःख, रोग, गंड (= फोडे), शल्य, घाव, अबाघा (= पीडा), पराये, प्रलोक (= नाशमान), शून्य, और अन्-आत्मा के तौर पर देखता है। वह उन धर्मों से चित्त को निवारण…करके अमृत (= निर्वाण) धातु (= पद) की ओर चित्त को एकाग्र करता है—यह शांत प्रणीत (= उत्तम) है, जो कि यह संस्कारों का शमन, सारी उपधियों का परित्याग, तृष्णा का क्षय, विराग, निरोध (रूपी) निर्वाण है। वह उस (अमृत पद, तृष्णाक्षय) में स्थित हो आस्रवों (= चिंत्त-मलों) के क्षय को प्राप्त होता है। यदि आस्रवों के क्षय को नहीं प्राप्त होता, तो उसी धर्म-अनुराग से=उसी धर्म-नन्दी से पाँचों अवरभागीय संयोजनों के क्षयय से, औपपाति (= देवता) हो, वहाँ (देवलोक में) जा निर्वाण को प्राप्त होने वाला होता है, (वह) उस लोक से लौटकर आने वाला नहीं होता। आनन्द! यह भी मार्ग=प्रतिपद् है, पाँच अवरभागीय संयोजनों के नाश के लिये।

“और फिर आनन्द! भिक्षु वितर्क विचार के शांत होने पर ॰ द्वितीय-ध्यान को प्राप्त हो विहरता है। ॰ तृतीय-ध्यान को ॰। ॰ चतुर्थ-ध्यान को ॰। और फिर आनन्द! भिक्षु रूप-संज्ञा के सर्वथा छोडने ॰ आकाशानन्त्यायतन को प्राप्त हो विहरता है ॰। ॰ विज्ञानानन्त्यायतन ॰। ॰ आकिंचन्यायतन ॰। ॰ नैवसंज्ञा-नासंज्ञायतन को प्राप्त हो विहरता है। वह जो कुछ वहाँ वेदना, संज्ञा ॰ उस लोक से लौटकर आने वाला नहीं होता। आनन्द! यह भी मार्ग=प्रतिपद् है।”

“भन्ते! यदि यही मार्ग=प्रतिपद् है, पाँच अवरभागीय-संयोजनों के प्रहाण (= नाश) के लिये; तो भन्ते! क्यों कोई भिक्षु चेतो-विमुक्ति (= छूटे चित्त-मलों) वाले होते है, कोई प्रज्ञा-विमुक्ति वाले?”

“आनन्द! इसे मैं इन्द्रिय (= मानसिक शक्ति के)-भेद के कारण कहता हूँ।”

भगवान् ने यह कहा, सन्तुष्ट हो आयुष्मान् आनंद ने भगवान् के भाषण को अभिनंदित किया।