मज्झिम निकाय
67. चातुम-सुत्तन्त
एक समय भगवान् चातुमाके आमलकोवन (= आँवले के बाग) में विहरते थे।
उस समय भगवान्के दर्शनार्थ सारिपुत्त, मोग्गलान आदि पाँचसौ भिक्षु चातुमा मे आये-हुये थे। (उस समय) वह आगंतुक भिक्षु (उस स्थानके) निवासी भिक्षुओके साथ संमोदन (= कुशल-प्रन्न पूछना) करते, शयनासन बतलाते, पान्न-चोवर सॅंभालते ऊॅंचे-शब्द=महाशब्द करने लगे। तब भगवान्ने आयुष्मान् आनंदसे कहा—
“आनन्द! यह कौन ऊॅंचे-शब्द=महाशब्द करनेवाले है, मानो केवट मछली मार रहे है?”
“भन्ते! यह सारिपुत्त, मोग्गलान आदि पाँच सौ भिक्षु ० महाशब्द कर रहे हैं।”
“तो, आनन्द! मेरे वचनसे उन भिक्षुओंसे कह—शास्ता आयुष्मानोंको बुला रहे है’।”
“अच्छा, भन्ते!”—(कह) भगवान्केा उत्तर दे, आयुष्मान् आनन्दने जहाँ वह भिक्षु थे, वहाँ…जाकर उन भिक्षुओंसे यह कहा—
“शास्ता, आयुष्मानोंको बुला रहे हैं।”
“अच्छा, आवुरा!” (कह) आयुष्मान् आनन्दको उत्तर दे वह भिक्षु जहाँ भगवान् थे वहाँ..जाकर भगवान्केा अभिवादन कर एक ओर बैंठ गये।
एक ओर बैठे उन भिक्षुओसे भगवान्ने यह कहा —
“भिक्षुओ! क्यों तुम ऊॅंचे शब्द= महाशब्द कर रहे थे, मानो केवट मछली मार रहे हों?”
“भन्ते! यह सारिपुत्त, मौदगल्यायन आदि (हम) पाँच सौ भिक्षु ० पान्नचीवर सॅंभालते ० महाशब्द कर रहे थे।”
“जाओ, भिक्षुओ! तुम्हे चले जाने (= मणामना) के लिये कहता हूं मेरे साथ तुम न रहना।”
“अच्छा, भन्ते!”—(कह) वह भिक्षु भगवान्को ऊत्तर दे, आसनसे उठ, भगवान्को अभिवादनकर प्रदक्षिणा कर शयनासन संभाल, पात्र-चीवर ले चले गये।
उस समय चातुमाके शाक्य किसी कामसे संस्थागार (= प्रजातंत्र भवन) में जमा थे। चातुमाके शाक्योंने दूरसे उन भिक्षुओको जाते देखा। देखकर जहाँ वह भिक्षु थे, वहाँ…जाकर उन भिक्षुओंसे यह कहा—
“हन्त! आप आयुष्मान कहाँ जा रहे हैं?”
“आवुसो! भगवान्ने भिक्षु-संघको चले जानेके लिये कहा।”
“तो आयुष्मानो! मुहूर्त भर (आप सब यहीं) ठहरेः शायद हम भगवान्को पसन्न (= राजी) कर सकें।”
“अच्छा, आवुसो!” (कह) उन भिक्षुओंने चातुमाके शाक्योंको उत्तर दिया।
तब चातुमावाले शाक्य जहाँ भगवान् थे, वहाँ…जाकर भगवान्को अभिवादन कर…एक ओर बैठ…भगवान से यह बोले—
“भन्ते! भगवान् भिक्षुसंघको अभिनन्दन=अभिवदन (= स्वीकार) करें। भन्ते! जैसे भगवान् ने पहिले भिक्षुसंघको अनुगृहीत किया था, वैसेही अब भी अनुगृहीत करें। भन्ते! यहाँ (= भिक्षुसंघ) में नये अचिर-प्रब्रजित, इस धर्ममें अभी हालके आये भिक्षु हैं। भगवान्का दर्शन न मिलनेपर उनके (मनमें) विकार=अन्यथास्त्र होता हैः इसी प्रकार ० भगवान्का दर्शन न मिलनेपर उनको विकार=अन्यथात्व होगा। जैसे, भन्ते! छोटे अंकुरों तरूण-बीजों केा जल न मिलनेपर विकार=अन्यथात्व होता हैः इसी प्रकार ०। भन्ते! भगवान् भिक्षुसंघको अभिनन्दन कर अनुगृहित करें।”
तब सहम्पति (= सहा ब्रह्मांडके स्वामी) ब्रंह्मा भगवान्के चित्तके वितर्कको जान कर, जैसे बलवान् पुरूष (अप्रयास) समेटी बाहको फैला दे, फैलाई बाहको सपेट ले, ऐसे ही ब्रंह्मलोक-में अन्तर्धान हो भगवान्के सामने प्रकट हुआ। तब सहम्पति ब्रंह्माने उत्तरासंग (= उपर की चद्दर) को एक (= दाहिने) कंधे पर कर, भगवान्की ओर अंजलि जोड भगवान् से यह कहा—
“भन्ते! भगवान् भिक्षु-संघको अभिनन्दन = अभिवदन करें ० छोटे अंकुरोंका ० छोटे बछडे़को ० अनुगृहीत करें।”
चातुमावाले शाक्य और सहम्पति ब्रंह्मा बीज, और तरूणकी उपमासे भगवान्को प्रसन्न करनेमें सफल हुये। तब आयुष्मान् महामौद्गल्यायनने भिक्षुओंको आमंत्रित किया—
“उठो, आवुसो! पात्र-चीवर उठाओ। चातुमावाले शाक्यों और सहम्पति ब्रंह्माने बीज और तरूणकी उपमासे भगवान्को प्रसन्न कर (= मना) लिया।”
“अच्छा, आवुस”— (कह) आयुष्मान् महामौद्गल्यायनको उत्तर दे् वह भिक्षु आसनसे उठ, पात्र चीवर ले जहाँ भगवान् थे, वहाँ गयेः जाकर भगवान्को अभिवादनकर एक ओर बैठ गये। एक ओर बैठे आयुष्मान् सारिपुत्रसे भगवान्ने यह कहा—
“सारिपुत्र! मेरे भिक्षुसंघके निकाल (= पणामना) देने पर तुझे कैसा हुआ था?”
“भन्ते! मुझे ऐसा हुआ था—भगवान्ने भिक्षु-संघको निकाल दिया, अब भगवान् निश्रिन्त हो दृष्ट- धर्म ( =इसी जन्म) के सुखसे युक्त हो विहरेंगे। हम भी अब दृष्ट-धर्म सुखसे युक्त हो विहरेंगे।”
“ठहर सारिपुत्र! ठहर सारिपुत्र! मत (फिर ) ऐसा विचार चित्तमें उत्पन्न करना।”
तब भगवान्ने आयुष्मान् महामौद्गल्यायनको संबोधित किया—
“मोग्गलान! मेरे भिक्षुसंघके निकाल देनेपर तुझे कैसा हुआ था?”
“भन्ते! मुझे ऐसा हुआ था—भगवान्ने भिक्षुसंघको निकाल दिया, अब भगवान् निश्चित हो दृष्ट-धर्म-सुखसे युक्त हो विहरेंगे। मै और आयुष्मान् सारिपुत्र भिक्षु-संघको परिधारण (= देख रेख) करेंगें।”
“साधु, साधु, मोग्गलान! चाहे भिक्षु-संघको मैं परिधारण करू, या सारिपुत्र-मोग्गलान।”
तब भगवान्ने भिक्षुओंको आमंत्रित किया—
“भिक्षुओ! पानी में घुसने वाले के लिये यह चार भय (= खतरे) के होने की संभावना रखनी चाहिए। कौनसे चार?—(1) ऊर्मि (= लहर)-भय (2) कुम्भीर (= मगर का)-भय, (3) आवर्त (= भॅंवर)-भय, और (4) सुसुका (= नरभक्षी मत्स्य)-भय।…इसी प्रकार भिक्षुओ! इस धर्ममें घरसे बेघर हो प्रब्रजित किसी पुद्गलको भी इन चार भयोंके होनेकी संभावना है। कौनसे चार ?—(1) ऊर्मि-भय, (2) कुम्भीर-भय (3) आवर्त-भय, और (4)सुसुका-भय।
(1) “क्या है भिक्षुओ! ऊर्मि-भय?—यहाँ भिक्षुओ! एक कुलपुत्र श्रद्धापूर्वक घरसे बेघर प्रब्रजित हो (सोचता है)—“जन्म (= जाति), जरा, मरण, शोक, रोदन-क्रंदन, दुःख-दौर्मनस्य, उपायास (= परेशानियों) में पडा हूँ, दुःखमें गिरा दुःखमें डूबा हूँ। क्या कोई इस केवल दुःख-पुंजके अन्त करनेका उपाय मालूम होगा।“(तब) उस प्रकार प्रब्रजित हुये, उसे सब्रह्मचारी उपदेशते हैं=अनुशासते हैं—“इस प्रकार तुम्हें गमन करना चाहिये, इस प्रकार आगमन करना चाहिये, इस प्रकार आलोकन-विलोकन करना चाहिये, इस प्रकार समेटना चाहिये, इस प्रकार फैंलाना चाहिये, इस प्रकार संघाटी (-वस्त्र), पात्र, चीवर धारण करना चाहिये।, उसको ऐसा होता है—“हम पहिले गृहस्थ होते समय दूसरोको उपदेश=अनुशासन देते थेः यह (भिक्षु) हमारे पुत्र, नाती जैसे होते भी हमें उपदेश = अनुशासन देना चाहते हैं, (यह सोच) वह ( भिक्षु-) शिक्षाका प्रत्याख्यान कर हीन (= गृहस्थ-भाव) को लौट जाते है। भिक्षुओ! यह कहा जाता है, कि (भिक्षु) ऊर्मि-भयसे भीत हो शिक्षाका प्रत्याख्यान कर हीनको लौट गया। भिक्षुओ! ऊर्मि-भय यह क्रोधकी परेशानीका नाम है।
(2) “क्या है भिक्षुओ! कुम्भीर-भय?—यहाँ, भिक्षुओ! एक कुलपुत्र ० प्रव्रजित हो ० क्या कोई इस केवल दुःखपुंज के अन्त करने का उपाय मालूम होगा, । ० उसे सब्रह्मचारी उपदेश = अनुशासन करते हैं— “यह तुम्हे खाना चाहिए, यह तुम्हें नही खाना चाहियेः यह तुम्हें भोजन करना चाहिये, यह तुम्हें नही भोजन करना चाहियेः ० आस्वादन ०, ० न आस्वादन ०: ० पान- करना०, ० न पान करना ०: तुम्हे कल्प्य ( = विहित ) खाना चाहिये, तुम्हे अ-कल्प्य न खाना चाहियेः ० कल्प्य भोजन करना ०, ० अकल्प्य भोजन न करना ०, ० कल्प्य आस्वादन करना ०, ० अकल्प्य आस्वादन न करना ०: ० कल्प्य पान-करना ०, ० अकल्प्य पान न करना ० तुम्हे कालसे खाना चाहिए, तुम्हे विकालसे न खाना चाहिएः ० , ० तुम्हे कालसे पान करना चाहिये, तुम्हे विकालसे पान न करना चाहिये।, उसको ऐसा होता है— पहिले गृहस्थ होते समय हम जो चाहते सो खाते, जो नही चाहते सो नहीं खातेः ०, जो चाहते सो पीते, जो नही चाहतें सो न पीते। कल्प्य भी खाते, अकल्प्य भी खातेः ० कल्प्य भी पीते, अकल्प्य भी पीते। कालसे भी खाते, विकालसे भी खातेः ० कालसे भी पीते, विकालसे भी पीते। जो भी गृहस्थ लोग श्रद्धापूर्वक उत्तम खाद्य-भोज्य दोपहर बाद विकालमें देते हैं, उसके लिये मुॅंह में जाब जैसा लगा रहे है”—(यह सोच) वह शिक्षाका प्रत्याख्यान ०। भिक्षुओ! यह कहा जाता है, कि कुम्भीर-भयसे भीत हो शिक्षाका पत्याख्यान कर, हीन (आश्रम ) केा लौट गया। भिक्षुओ! कुम्भीर-भय यह पेटूपन का नाम है।
“क्या है, भिक्षुओ! आवर्त-भय?—० उपाय मालूम होगा। वह इस प्रकार प्रब्रजित हो पूर्वाहृ समय पहिन कर पात्र-चीवर ले, कायसे अरक्षित (= सयम-रहित ), चित्तसे अरक्षित, वचनसे अ-रक्षित, स्मृति (= होश) से वंचित, इन्द्रियांेसे असंवृत (= संयम-रहित) हो ग्राम या निगममें भिक्षाके लिये प्रविष्ट होता है। वहा वहाँ गृहपति या गृहपति-पुत्रकेा पाँच काम-गुणों (= भोगों) से समर्पित = संयुक्त हो मौज करते देखता है। उसकेा ऐसा होता है— “पहिले गृहस्थ होते समय हम इसी प्रकार पाँच कामगुणोंसे समर्पित = संयुक्त हो मौज करते थे: ( हमारे ) घरमें भोग भी हैं, भोगोको भोगते हुये भी पुण्य किये जा सकते है”—( यह सोच ) वह शिक्षाका प्रत्याख्यान ० । भिक्षुओ। यह कहा जाता है, की आवर्त-भयसे भीत हो ० हीन ( आश्रम ) को लौट गया। भिक्षुओ! आवर्त-भय यह पाँच काम-गुणों ( = काम-मोगों ) का नाम है।”
“क्या है, भिक्षुओ! सुसुका-भय ?—० उपाय मालूम होगा। वह ० ग्राम या निगममें भिक्षाके लिये प्रविष्ट होता है। वह वहाँ ठीकसे अनाच्छादित, ठीकसे वस्त्र न पहीने ( किसी ) स्त्रीको देखता है। ( तब ) उस दुराच्छादित, दुष्प्रावृत स्त्रीको देख, राग उसके चित्तको पीडित करता है। वह रागसे मीडित चित्त हो, शिक्षाका प्रत्याख्यान कर, हीन (आश्रम) को लौट गया है। भिक्षुओ! यह कहा जाता है, सुसुका-भय यह स्त्रियो (= मातृग्राम) का नाम है।
“भिक्षुओ! इस धर्ममें घरसे बेघर हो प्रब्रजित हुये किसी पुद्गलको इन चार भयोंके होनेकी संभावना है।”
भगवान् ने यह कहा, सन्तुष्ट हो उन भिक्षुओंने भगवान्के भाषणकेा अभिनंदित किया।