मज्झिम निकाय

73. महा-वच्छगोत्त-सुत्तन्त

ऐसा मैने सुना—

एक समय भगवान् राजगृहमें वेणुवन कलंदक-निवापमें विहार करते थे।

तब वच्छागोत्त (= वत्सगोत्र) परिब्राजक जहाँ भगवान् थे, वहाँ गया, जाकर भगवान् को सम्मोदन कर एक ओर बैठ गया। एक ओर बैठे वत्सगोत्र परिब्राजकने भगवान् से यह कहा—

“भो गौतम! देर हो गई, आप गौतमके साथ मुझे कथा-संलाप किये। साधु, (= अच्छा हो) आप गौतम संक्षेपसे मुझे कुशल-अकुशल (= भलाई-बुराई) का उपदेश करे।”

“वत्स! मै संक्षेपसे तुझे कुशल-अकुशलका उपदेश करता हूँ, विस्तारसे भी तुझे कुशल-अकुशलका उपदेश करता हूँ। किन्तु (पहिले) वत्स! मै संक्षेप से तुझे कुशल-अकुशलका उपदेश करता हूँ, उसे सुन, अच्छी तरह मनमें कर कहता हूँ।”

“अच्छा, मों!”—(कह) वत्सगोत्र परिब्राजकने भगवान्को उत्तर दिया।

भगवान् यह कहा—‘वत्स! लोभ अकुशल (= बुराई, पाप) है, और अलोभ कुशल (= भलाई, पुण्य) है। वत्स! द्वेष अकुशल है, अ-द्वेष कुशल है। वत्स! मोह अकुशल है, अ-मोह कुशल है। इस प्रकार वत्स! यह तीन धर्म (= पदार्थ) अकुशल हैं, और तीन धर्म कुलश।

“वत्स! प्राणातिपात (= हिंसा) अकुशल है, और प्राणातिपातसे विरत होना, कुशल है। वत्स! अदत्तादान (= चोरी) अकुशल है, औश्र अदत्तादानसे विरति कुशल। कामों (= स्त्री प्रसंग) में मिथ्याचार (= दुराचार) अ-कुशल है, काम-मिथ्याचासे विरति कुशल। वत्स! मृषावाद (= झूठ) अकुशल है, मृषावाद-विरति कुशल है, काम-मिथ्याचारसे विरति कुशल। वत्स! पिशुन-वचन (= चुगली) अकुशल है, पिशुन-वचन-विरति कुशल। वत्स! परूष-वचन अकुशल है, परूषवचन-विरति कुशल। वत्स! संप्रलाप (= बकवाद) अकुशल है, संप्रलाप-विरति कुशल। वत्स! अभिध्या (= लोभ) अकुशल है, अन्-अभिध्या कुशल। वत्स! व्यापाद (= पीडा देना) अकुशल है, अ-व्यापाद कुशल। वत्स! मिथ्या-दृष्टि (झूठी धारणा) अकुशल है, सम्यग्-दृष्टि कुशल। वत्स! यह दश धर्म अकुशल हैं, दश धर्म कुशल हैं।

“वत्स! जब भिक्षुकी तृष्णा प्रहीण (= नष्ट) हो गई होती है, उच्छिन्नमूल, कटे-शिर-वाले-ताड जैसी अभाव-प्राप्त (= लुप्त ), भविष्यमें-न-उत्पन्न-होने लायक होती हैः ( तो ) वह भिक्षु अर्हत्=क्षीण-आस्त्रव (= जिसके चित्तमल नष्ट हो गये हैं), (ब्रह्मचर्य-) वस-चुका, कृतकृत्य, भार-वह-चुका, सत्पदार्थको-प्राप्त, भव-बंधन-तोड-चुका, आज्ञा (= परमज्ञान) द्वारा-सम्यक्-मुक्त होता है।”

“रहे आप गौतम। क्या आप गौतमका एक भी श्रावक (= शिष्य) भिक्षु है, जो कि आस्त्रवों (= चित्तमलो) के क्षयसे आश्रव-रहित, चित्त-विमुक्त (= ० मुक्ति) प्रज्ञा-विमुक्तिको इसी जन्ममें स्वयं जानकर साक्षात्कार कर, प्राप्त कर विहरता हो ?”

“वत्स! एक ही नहीं सौ, सौ ही नहीं तीन सौ, (तीन सौ ही) नहीं चार सौ, (चार सौ ही) नहीं पाँच सौः वल्कि अधिक ही मेरे श्रावक भिक्षु आस्त्रवोंके क्षयसे आस्त्रव-रहित, चित्त-विमुक्ति, प्रज्ञाविमुक्तिको इसी जन्ममें स्वयं जान कर, साक्षात्कार कर, प्राप्त कर विहरते हैं।”

“रहें आप गौतम, रहने दें भिक्षुओंको। क्या आप गौतमकी एक भी श्राविका (= शिष्या) भिक्षुणी है, जो कि आस्त्रवोंके क्षयसे ० प्राप्त कर विहरती हो ?”

“वत्स! एक हीं ० बल्कि अधिक ० प्राप्त कर विहरती है।”

“रहें आप गौतम, रहने दें भिक्षु, रहे भिक्षुणियां। क्या आप गौतमका एक भी गृहस्थ, श्वेत-वस्त्रधारी, ब्रह्मचारी श्रावक उपासक (= गृहस्थ शिष्य, भक्त) है, जो कि पाँच अवर-भागीय-संयोजनोके क्षयसे औपपातिक (= अयोनिज, देव) हो उस (देवलोक) में निर्वाण प्राप्त करनेवाला, उस लोकसे लौटकर न आनेवाला हो?”

वत्स! एक ही नही ० पाँच सौ, बल्कि अधिक ही मेरे गृहस्थ ० उस लोकसे लौटकर न आने वाले है।”

“रहे आप गौतम, रहे भिक्षु, रहे भिक्षुणियां, रहें श्वेत-वस्त्रधारी, ब्रह्मचारी उपासक गृहस्थ श्रावकः क्या आप गौतमका एक भी गृहस्थ अवदातवसन (= श्वेतवस्त्रधारी), काम-भोगी (= उचित विषय-भोगी), शासन-कर (= धर्मानुसार चलने वाला) =अववाद-प्रतिकर संशय-पारंगत, वाद-विवादसे-विगत, वैशासद्य (= निपुणता)-प्राप्त, गृहस्थ श्रावक उपासक है, जो कि शास्ताके शासन (= गुरूके उपदेश)में अतिश्रद्धावान् होकर विहरता हो?”

“वत्स! एक ही नहीं ० पाँच सौ, बल्कि अधिक ही मेरे गृहस्थ ० शास्ताके शासनमें अतिश्रद्धावान होकर विहरते है।”

“रहे आप ० रहें गृही अवदातवसन कामभोगी उपासकः क्या ० एक भी गृहस्थ अवदात-वसना ब्रह्मचारी श्राविका उपासिका है, जो कि पाँच अवर-भागीय संयोजनोके क्षयसे ० उस लोकसे लौट कर न आनेवाली है।”

“रहे आप ० रहे गृहस्थ अवदातवसना ब्रह्मचारिणी श्राविका उपासिकायें, क्या आप गौतम-की एक भी, अवदातवसना, कामभोगिनी, शासनकरी = अववाद-प्रतिकरी, सशय-पारंगता, बाद-विवादसे परे, वैशारद्य-प्राप्ता गृहस्थ श्राविका उपासिका है, जो कि शास्ताके शासनमें अतिश्रद्धावान् होकर विहरती हो ?”

“वत्स! एक ही नही, ० पाँच सौ बल्कि अधिक ही मेरी ० अतिश्रद्धावान् होकर विहरती हैं।”

“भो गौतम! यदि इस (आपके) धर्मके आप गौतम ही आराधन (= सेवन) करनेवाले (= आराधक) होते, और भिक्षु सेवन करनेवाले न होते, तो इस प्रकार यह ब्रह्मचर्य इस अंशमें अपूर्ण रहता। चूंकि इस धर्मके आप गौतम भी सेवन करनेवाले है, और भिक्षु भी सेवन करनेवाले हैं, इसलिये यह ब्रह्मचर्य इस अंशमें पूर्ण है। भो गौतम! यदि इस धर्मके आप गौतम ही आराधक होते, और भिक्षु ही आराधक होते, और भिक्षुणियां आराधक न होतीः तो इस प्रकार यह ब्रह्मचर्य इस अंशमें अपूर्ण रहता। चूंकि इस धर्मके आप गौतम भी आराधक हैं, भिक्षु भी ०, और भिक्षुणिया भी ०, इसलिये यह ब्रह्मचर्य इस अंशमें पूर्ण है। भो गौतम! यदि आप ० भिक्षु ०, और भिक्षुणियां ही आराधक होतीं, किन्तु ० ब्रह्मचारी उपासक ० आराधक न होतेः तो ० उपूर्ण रहता। चूंकि ० ब्रह्मचारी उपासक भी आराधक है, इसलिये ० पूर्ण है। ० यदि इस धर्मके आप ० ब्रह्मचारी उपासक ० ही आराधक होते, और ० काम-भोगी ० उपासक ० आराधक न होते, तो ० अपूर्ण रहता। चूंकि ० काम-भोगी ० भी आराधक है, इसलिये ० पूर्ण है। ० यदि इस धर्मके आप ० कामभोगी उपासक ० आराधक होते, ० ब्रह्मचारिणी ० उपासिकायें आराधक न होतीं तो ० उपूर्ण रहताः चूंकि ० ब्रह्मचारिणी ० उपासिकायें ही आराधक होतीः तो ० उपूर्ण रहता। चूंकि ० काम-भोगिनी ० उपासिकायें भी आराधक हैं, इसलिये ० पूर्ण है।

“जैसे, भो गौतम! गंगानदी समुद्र-निन्ना (= समुद्रकी और जानेवाली) =समुद्र-प्रवणा=समुद्र-प्राग्भारा समुद्रको ही जाती स्थित हैः ऐेसे ही यह गृहस्थ, परिब्राजक ( सारी ) आप गौतमकी परिषद् निर्वाण-निन्ना (= निर्वाणकी और जानेवाली)=निर्वाण-प्रवणा=निर्वाण-प्राग्मारा निर्वाणको ही जाती स्थित है। आश्चर्य! भो गौतम! आश्चर्य!! भो गौतम! जैसे औधेको सीधा कर दे ० यह मैं भगवान गौतमकी शरण जाता हूँ। धर्म और भिक्षु संघकी भी । भन्ते! मैं भगवान्के पास प्रब्रज्या पाऊॅं।”

“यदि भन्ते। ० चार मास परिवास करते है, ० तो मैं चार वर्ष परिवास करूंगा। ० ।”

वत्सगोत्र परिब्राजकने भगवान्के पास प्रब्रज्या पाई, उपसंपदा पाई।

उपसम्पन्न (= भिक्षु) होने के थोडे ही समय बाद=15 दिन बाद आयुष्मान् वत्सगोत्र जहाँ भगवान् थे, वहाँ'''जाकर भगवान्को अभिवादन कर…एक और बैठे भगवानसे यह बोले—

“भन्ते! शैक्ष्य (= अन्-अर्हत्, किन्तु निर्वाण-मार्गपर दृढ आरूढ )-ज्ञानसे शैक्ष्य-विद्यासे पाया जा सकता है वह मैने पा लिया। अब भगवान् मुझे आगेका धर्म बतलायें।”

(1) “तो वत्स! तु दो आगेके धर्मो—शमथ (= समाधि) और विपश्यना (= प्रज्ञा, ज्ञान) की भावना (= सेवन ) कर । वत्स! इन आगेके दो धर्मा—शमथ औश्र विपश्यनाकी भावना करनेसे, यह तेरे लिये अनेक धातुओंके प्रतिवेध-(= तह तक पहूँचने)में (सहायक) होंगे। तब (यदि) तू वत्स! चाहेगा कि —‘अनेक प्रकारकी ऋद्धियोंका अनुभव करूं—एक होकर बहुत हो जाऊॅं, बहुत होकर एक हो जाऊ।आविर्भाव, तिरोभाव (= अन्तर्धान, होना), तिरः-कुडय (= अन्तर्धान हो मीतके पार चला जाना), तिरः-प्राकार (= अन्तर्धान हो प्राकारके पार हो जाना) तिरः- पर्वत, आकाशमें (चलने जैसे भूमि पर) बिना लिपटे चलूं, जलकी भांति पृथ्विमें डूंबॅूं उतराऊॅं पृथिवीकी तरह जलमें बिना भीगे जाऊ, पक्षियोंकी भांति आकाशमें आसन मारकर चलूं, इतने महाप्रतापी = महर्द्धिक चंद्र-सुर्यकोभी हाथसे छूऊॅ=मीजूः ब्रह्मलोकपर्यन्त (अपनी) कायासे वशमें रक्खूं’।—तो आयतन (= आश्रय ) होनेपर तो वहाँ तू साक्षी-भावको प्राप्त होगा।

“(2) तब (यदि) तू वत्स! जो चाहेगा—विशुद्ध अमानुष दिव्य श्रोत्र-धातु (= कान इन्द्रिय) से दूर-नजदीकके दिव्य-मानुष देानो प्रकारके शब्दोको सुनूं’।—तो आयतन होनेपर वहाँ वहाँ तू साक्षी-भावको प्राप्त होगा।

“(3) तब (यदि ) तू वत्स! चाहेगा—दूसरे सखो= दूसरे प्राणियोंके चित्तको (अपने) चित्तद्वारा जानूं—सराग-चित्त होनेपर सराग-चित्त है—यह जानूः वीतराग (= राग-रहित)-चित्त होनेपर, वीत-राग-चित्त है—यह जानूं। स-द्वेष ० वीत-द्वेष ०। स-मोह ०।वी-मोह ०। विक्षिप्त-चित्त ०, सं-क्षिप्त (= एकाग्र)-चित्त०, महद्गत (= विशाल)-चित्त ०, अ-महद्गत ०, स- उत्तर (= जिससे उत्तम भी है) चित्त ०, अन्-उत्तर- चित्त ०। समाहित (= समाधि-प्राप्त)- चित्त ०, अ-समाहित- चित्त ०। विमुक्त- चित्त होनेपर, विमुक्त- चित्त है—यह जानूंः अ-विमुक्त-चित्त होनेपर अ-विमुक्त-चित्त है—यह जानूं।—तो आयतन होनेपर वहाँ वहाँ तू साक्षी भावको प्राप्त होगा।

“(4) तब (यदि) तू वत्स! चाहेगा—‘अनेक प्रकारके पूर्व-निवासों ( =पूर्व-जन्मों ) केा अनु-स्मरण करूं—जैसे कि एक जन्मको भी, दो जन्मको भी ० इस प्रकार आकार और उद्देश्य सहित अनेक प्रकारके पूर्व निवासोंको स्मरण करूं।—० तू साक्षीभावको प्राप्त होगा।

“(5) ० चाहेगा—मैं अमानुष विशुद्ध दिव्य-चक्षुसे अच्छे बुरे, सुवर्ण-दुर्वर्ण ० प्राणियोको मरते उत्पन्न होते देखूं, कर्मानुसार गतिको प्राप्त होते प्राणियोंको पहिचानूं—यह आप प्राणधारी ० स्वर्गलोकको प्राप्त हुये है, इस प्रकार अमानुष विशुद्ध दिव्य-चक्षुसे ० कर्मानुसार गतिको प्राप्त होते प्राणियोंको पहिचानूं।’—०तू साक्षी भावको प्राप्त होगा।

“(6) ० चाहेगा—‘मै आस्त्रवोके क्षयसे आस्त्रवरहित चित्त-विमुक्ति, प्रज्ञा-विमुक्तिको इसी जन्ममें स्वयं जानकर, साक्षात्कार कर प्राप्त कर विहरूं।’—०तू साक्षी (= साक्षात्कार करनेवाला ) भाव को प्राप्त होगा।”

तब आयुष्मान् वत्स-गोत्र भगवान्के भाषणको अभिनन्दित कर, अनुमोदित कर, आसनसे उठ भगवान्को अभिवादन कर प्रदक्षिणा कर चले गये।

तब आयुष्मान् वत्स-गोत्र एकाकी, एकान्तवासी ० आत्म-संयमी हो विहरते, जल्दी ही ० अनुपम ब्रह्मचर्य-फलको इसी जन्ममें ० प्राप्त कर विहरने लगे, ० । आयुष्मान् वत्स-गोत्र अर्हतोंमेंसे एक इुये।

उस समय बहुतसे भिक्षु भगवान्के दर्शनके लिये जा रहे थे। आयुष्मान् वत्स-गोत्रने दूरसे ही उन भिक्षुओंको जाते देखा। देखकर जहाँ वह भिक्षु थे, वहाँ “जाकर उन भिक्षुओसे कहा—

“हन्त! आप आयुष्मानो कहाँ जा रहे हो ?”

“आवुस! हम भगवान्के दर्शनके लिये जा रहे है।”

“तो आयुष्मानो! मेरे वचनसे भगवानके चरणोमें शिरसे वन्दना करनाः (और यह कहना)—‘भन्ते! वत्स-गोत्र भिक्षु भगवान्के चरणो में शिरसे वन्दना करता है, और यह कहता है—भगवान्! मैंने (उस अभिज्ञाको) परिचीर्ण कर लिया (= आचरण कर लिया, पा लिया) सुगत! मैने परिचीर्ण कर लिया।”

“अच्छा, आवुस!”— (कह) उन भिक्षुओंने आयुष्मान् वत्स-गोत्रकेा उत्तर दिया।

तब वह भिक्षु जहाँ भगवान् थे, वहाँ गयेः जाकर भगवान्को अभिवादन कर एक और'''बैठ बोले—

“भन्ते! आयुष्मान् वत्स-गोत्र भगवान्के चरणोंमें शिरसे वंदना करते हैं, और यह कहते हैं—‘भगवान्! मैंने परिचीर्ण कर लिया, सुगत! मैने परिचीर्ण कर लिया’।”

“भिक्षुओ। पहिले मैने चित्तसे चित्तको देखकर वत्सगोत्र भिक्षुके विषयमें जान लिया—‘वत्स-गोत्र भिक्षु त्रैविद्य (= तीन विद्याओ का जाननेवाला ) महर्द्धिक (= ऋद्धि-प्राप्त )=महानुभाव है’। देवताओंने भी मुझे इस अर्थको कहा—‘वत्स-गोत्र भिक्षुः भन्ते! त्रैविद्य, महर्द्धिक= महानुभाव है’।”

भगवान्ने यह कहा, सन्तुष्ट हो उन भिक्षुओंने भगवान्के भाषणको अभिनन्दित किया।