मज्झिम निकाय

75. मागन्दिय-सुत्तन्त

ऐसा मैंने सुना—

एक समभ भगवान् कुरू (देश) के, कम्मास-दम्म नामक कुरूओं के निगम में, भारद्वाज गोत्र ब्राह्मण की अग्निशालाओं में तृण-आसन पर विहार करते थे।

तब भगवान् पूर्वाह्न के समय पहिनकर, पात्र-चीवर ले कम्मास-दम्म (= कल्माष दम्य) में भिक्षा के लिए प्रविष्ट हुए। कम्मास दम्म में भिक्षाटन कर, भोजन से निवृत्त हो, दिन के विहार के लिये एक वन-खण्ड में गये। उस वन-खण्ड को अवगाहन कर एक वृक्ष के नीचे दिन के विहार के लिये बैठे।

तब मागन्दिय परिब्राजक जंघा विहार (= टहलने) के लिये घूमात-टहलता, जहाँ भारद्वाज गोत्र ब्राह्मण की अग्निशाला थी, वहाँ गया। मागन्दिय परिब्राजक ने भारद्वाज गोत्र ब्राह्मण की अग्नि शाला में तृण-आसन (= तृण संस्तरक) बिछा देखा। देखकर भारद्वाज गोत्र ब्राह्मण से कहा—

“आप भारद्वाज की अग्निशाला में किसका तृण-आसन बिछा हुआ है; श्रमण का जैसा जान पडता है?”

“भो मागंदिय! शाक्य-पुत्र, शाक्यकुल से प्रब्रजित (जो) श्रमण गौतम हैं। उन भगवान् का ऐसा मंगल कीर्ति-शब्द (= यश) फैला हुआ है—‘वह भगवान् अर्हत्, सम्यक्-संबुद्ध, विद्या-चरण-सम्पन्न, सुगत, लोकविद्, पुरूषों के अनुपम, चाबुक-सवार, देवता और मनुष्यों के शास्ता भगवान् बुद्ध हैं। उन्हीं आप गौतम के लिये यह शय्या बिछी हुई है।”

“भो भारद्वाज! यह बुरा देखना हुआ, जो हमने आप गौतम की भुन-भू शय्या को देखा।”

“रोको इस वचन को मार्गादय! रोको इस वचन को मागंदिय! उन आप गौतम में बहुत से क्षत्रिय पंडित भी, ब्राह्मण पंडित भी, गृहपति-पंडित भी, श्रमण-पंडित भी अभिप्रसन्न (= श्रद्धावान्) हैं, आर्य न्याय कुशल-धर्म में लाये गये है।”

“हे भारद्वाज! यदि मैं आप गौतम को सामने भी देखता, तो सामने भी उन्हें कहता—‘श्रमण गौतम की भुन-भू ॰’। सो किस हेतु?—यही हमारे सुत्तो (= सूत्रो, सुक्तों) में आता है।”

“यदि, आप मागन्दिक को बुरा न लगे, तो इस (बात) को मैं श्रमण-गौतम से कहूँ।”

“बेखटके आप भारद्वाज (मेरे) कहे को उनसे कहें।”

भगवान् ने अमानुष विशुद्ध दिव्य-श्रोत्र से भारद्वाज गोत्र ब्राह्मण मागंदिय परिब्राजक के साथ होते इस कथा-संलाप को सुना। तब भगवान् सायंकाल ध्यान से उठकर, जहाँ भारद्वाज-गोत्र ब्राह्मण की अग्निशाला थी, वहाँ गये; और बिछे तृण-आसन पर बैठ गये। तब भारद्वाजै-गोत्र ब्राह्मण जहाँ भागवान् थे, वहाँ गया, जाकर भगवान् के साथ…संमोदन कर एक ओर बैठ गया। एक ओर बैठे भार द्वाज-गोत्र ब्राह्मण से भगवान् ने यह कहा—

“भारद्वाज! इस तृण-आसन को लेकर तेरा मागंदिय-परिब्राजक के साथ क्या कुछ कथा-संलाप हुआ?”

ऐसा कहने पर भारद्वाज-गोत्र ब्राह्मण संविग्न=रोमांचित हो भगवान् से यह बोला—

“यही हम आप गौतम से कहने वाले थे, कि आप गौतम ने (उसे) अन्-आख्यात (= अकथितव्य) कर दिया।”

यही कथा भारद्वाज-गोत्र ब्राह्मण और भगवान् में हो रही थी, कि मागंदिय परिब्राजक जंघा-विहार के लिये टहलता-घूमता, जहाँ भारद्वाज-गोत्र ब्राह्मण की अग्निशाला थी, जहाँ भगवान् थे, वहाँ गया। जाकर भगवान् के साथ….संमोदन कर एक ओर बैठ गया। एक ओर बैठे मागंदिय परिब्राजक से भगवान् ने यह कहा—

“मागन्दिय! चक्षु रूपाराम (= अच्छा रूप देखकर आनन्दित होने वाला) =रूपरत रूप-समुदित है; वह (= आँख) तथागत की दान्त (= संयत) गुप्त=रक्षित=संवृत है। (तथागत) उस (= चक्षु) के संवर (= संयम) के लिये धर्मोपदेश करते हैं। मागन्दिय! यही सोचकर तूने कहा न—‘श्रमण गौतम भुन-भू है’?”

“भो गौतम! यही सोचकर मैंने कहा—‘श्रमण गौतम भुन-भू है’। सो किस हेतु?—ऐसा ही हमारे सूत्रों में आता है।”

“मागन्दिय! श्रोत्र शब्दाराम ॰। ॰ घ्राण गंधाराम ॰। ॰ जिह्वा रसाराम ॰। ॰ काया स्प्रष्टव्याराम ॰। ॰ मन धर्माराम ॰।

“तो क्या मानता है, मागन्दिय! यहाँ कोई (पुरूष) पहिले चक्षु द्वारा विज्ञेय इष्ट, कान्त=मनाप=प्रियरूप, काम-युक्त, रंजनीय, रूपों को भोग रहा हो। वह दूसरे समय रूपों के समुदय (= उत्पत्ति), अस्त-गमन, आस्वाद, आदिनव (= दोष), निस्सरण (= निकलने के उपाय) को ठीक से जानकर, रूप विषयक तृष्णा को छोडे; रूप-विषयक जलन को हटाकर, (रूप की) प्यास से रहित हो; (अपने) भीतर उपशांत (= शांत)-चित्त हो विहरे। ऐसे (पुरूष) को मागन्दिय! तेरे पास कहने के लिये क्या है?”

“कुछ नहीं, भो गौतम!”

“तो क्या मानता है, मागन्दिय! ॰ श्रोत्र द्वारा विज्ञेय ॰ शब्दों को भोग रहा हो ॰। ॰ घ्राण द्वारा विज्ञेय ॰ गंधो को भोग रहा हो ॰। ॰ जिह्वा द्वारा विज्ञेय ॰ रसों को भोग रहा हो ॰। ॰ काया , द्वारा विज्ञेय ॰ स्प्रष्टव्यों को भोग रहा हो ॰।

“मागन्दिय! पहिले गृहस्थ होते समय मैं चक्षु द्वारा विज्ञेय दृष्ट ॰ रसों को भोग रहा था। ॰ शब्दों ॰। ॰ गंधो ॰। ॰ रसों ॰। ॰ स्प्रष्टव्यों ॰। मागन्दिय! उस समय मेरे तीन प्रासाद थे—एक वर्षाकालिक, एक हेमन्तिक, एक गीष्मक। मैं वर्षा के चारों महीने वर्षाकालिक प्रासाद में, अ-पुरूषों (= स्त्रियों) के वाद्यों से सेवित हो, प्रासाद के नीचे न उतरता था। फिर दूसरे सयम कामों (= विषय-भोगो) के समुदय, अस्त-गमन ॰ हो अच्छी तरह जान काम-तृष्णा को छोड ॰ उपशांत-चित्त हो। विहरता हूँ। (जब) मैं अन्य प्राणियों को कामों अ-वीतराग, काम-तृष्णा द्वारा खाये जाते, काम-दाह से जलते हुये कामों को सेवन करते देखता हूँ; तो मैं उनकी स्पृहा नहीं करता, (उनमें) अभिरत नहीं होता। सो किस हेतु?—मागन्दिय! जो यह रति कामों से अलग, अकुशल-धर्मों (= पापों) से अलग में हैं, (जो रति कि) दिव्य सुखों को मात करती है, उस रति में रमते हीन (रति) की स्पृहा नहीं करता, उसमे अभिरत नहीं होता।

“जैसे मगन्दिय! कोई आढ्य, महाधनी; महाभोग (संपन्न) गृहपति, या गृहपति-पुत्र पाँच काम-गुणों-चक्षु द्वारा श्रेय, इष्ट=कान्त, मनाप=प्रिय, कमनीय=रंजनीय रूपों, ॰ शब्दों, ॰ गंधो, ॰ रसों, ॰ स्प्रष्टव्यों—से समर्पित=समंगीभूत (= संयुक्त) हो विहार करे। वह काया से सुचरित, (= सुकर्म) करके, वचन से सुचरित करके, मन से सुचरित करके काया छोड मरने के बाद सुगति स्वर्गलो में त्रायस्त्रिंश देवों के गीच उत्पन्न हो। वह वहाँ नन्दनवन में अप्सरा-समुदाय से परिवारित (= घिरा) पाँच दिव्य कामगुणों से समर्पित, समंगीभूत हो बहार करें। वह किसी गृहपति या गृहपति-पत्र को पाँच काम-गुणों से समर्पित, समंगीभूत हो बहार करते देखे। तो क्या मानता है मागन्दिय! क्या वह नन्दन वन में अप्सरा समुदाय से परिवारित, पाँच दिव्य काम-गुणों से समर्पित ॰ हो बहार करता, देवपुत्र; इस गृहपति या गृहपति पुत्र को पाँच मानुष काम-गुणों से समर्पित ॰ हो बहार करते देख; मानुष काम-गुणों की ओर लौटना चाहेगा?’

“नहीं, भो गौतम!”

“सो, किस हेतु?”

“भो गौतम! मानुष कामों (= भोगों) से दिव्य काम अभिक्रान्ततर (= उत्तम)=प्रणीततर हैं।”

“ऐसे ही भगन्दिय! पहिले गृहस्थ होते समय मैं ॰ (जो रति कि) दिव्य सुखों को मात करती है, उस रति में रमते हीन (-रति) की स्पृहा नहीं करता, उसमे अभिरत नहीं होता।

“जैसे मागन्दिय! सडा-शरीर, पका-शरीर, कीडों से खाया जाता, नखों से घाव के मुखों को कुरेदता कोई कोढी आदमी (आग) पर शरीर को तपाता हो। उसके मित्र-अमात्य, ज्ञाति-सलोहित (= भाई-बंद) शल्यकर्ता भिषक् (= वैद्य) को लायें। वह ॰ भिषक् उसकी चिकित्सा करें। उस चिकित्सा से वह कुष्ट से मुक्त, निरोग स्वतन्त्र, स्ववश, जहाँ चाहे तहाँ जाने वाला हो जाये। (फिर) वह दूसरे सडे शरीर ॰ कोढी आदमी को भौर पर शरीर को तपाता देखे, तो क्या मानता है, मागन्दिय! क्या वह उस कोढी के भौर पर तपाने या औषध-सेवन की स्पृहा (= इच्छा) करेगा?”

“नहीं, भो गौतम!”

“सो, किस हेतु?”

“भो गौतम! रोग होने पर ही भैषज्य (= चिकित्सा) का काम होता है, रोग न रहने पर भैषज्य का काम नहीं होता।’—

“ऐसे ही मागन्दिय! पहिले गृहस्थ होते समय मैं ॰ ॰ उसमें अभिरत नहीं होता।”

“जैसे मागन्दिय! सडा-शरीर ॰ कोढी ॰ चिकित्सा से कुष्ट से मुक्त ॰ जो जाये। (तब) दो बलवान्…पुरूष…बाहों से पकडकर उसे भौर (की आग) पर डालें। तो क्या मानता है, मागन्दिय! क्या वह पुरूष इधर उधर शरीर को नहीं हटावेगा?”

“जरूर, भो गौतम!’

“सो किस हेतु?”

“भो गौतम! आग दुःख-स्पर्श (= दुःख के साथ छूने लायक), महा-ताप, महा-दाह वाली है।”

“तो क्या मानता है, मागन्दिय! इसी समय वह आग दुःख-स्पर्श-महाताप-महादाह वाली हे, या पहिले भी……?”

“भो गौतम! इस समय भी वह आग दुःख-स्पर्श ॰ है, और पहिले भी…थी। (किन्तु पहिले) यह सडा-शरीर ॰ उपहृत-इन्द्रिय (= अक्ल के मारे) कोढी आदमी दुःख-स्पर्श अग्नि में भी ‘सुख है’—ऐसी विपरत धारणा रखता था।”

“ऐसे ही मागन्दिय! काम (= विषयभोग) अतीतकाल में भी दुःख-स्पर्श—महाताप-महादाह वाले हैं; काम भविष्य-काल में भी ॰, इस समय वर्तमान में भी दुःख-स्पर्श-महाताप-महाताप वाले हैं। मागन्दिय! यह कामों में अ-वीतराग, काम-तृष्णा से खाये जाते, कामदाह से जलते उपहृत-इन्द्रिय (= हिये की फूटी वाले) प्राणी दुःख-स्पर्श वाले कामों में ‘सुख है’—ऐसी विपरीत धारणा (= संज्ञा) रखते है।

“जैसे, मागन्दिय! सडा-शरीर ॰ कोढी भौर पर शरीर को तपाता हो। मागन्दिय! जितना ही जितना वह ॰ कोढी भौर पर शरीर को तपावे, उतना ही उतना उसके घाव के मुँह में अधिक मल, अधित दुर्गन्ध, अधिक पीब आवे। घाव के मुँह के खुजलाने से क्षण भर के लिये रस, आस्वाद मालूम होवे। इसी प्रकार मागन्दिय! वह कामों में अ-वितराग कामतृष्णा से खाये जाते, काम-दाह से जलते प्राणी कामों का सेवन करते हैं। मागन्दिय! जितना ही जितना कामों में अ-वीतराग ॰ प्राणी कामों का सेवन करते हैं, उतना ही उतना उन प्राणियों की काम-तृष्णा बढती है, काम-दाह से (वह) जलते हैं; कामगुणों (के सेवन) से क्षण भर के लिये रस, आस्वाद मात्र मालूम होता है।

“तो क्या मानता है, मागन्दिय! क्या तूने देखा या सुना है, कि काम-गुणों (= विष्ज्ञय-भोगों) से समर्पित, समंगीभूत हो बहार करते, कोई राजा या राज-महामात्य, काम-तृष्णा बिना छोडे, काम-दाह बिना त्यागे, पिपासा-रहित बन अपने अन्दर उपशांत-चित्त हो विहरता था, विहर रहा है, या विहरेगा?”

“नहीं, भो गौतम!”

“साधु, मागन्दिय! मैंने भी यह नहीं देखा, नहीं सुना, कि ॰ कोई राजा या राज महामात्य ॰ विहरेगा। बल्कि मागन्दिय! जो श्रमण या ब्राह्मण पिपासा-रहित बन, अपने अन्दर उपशांत-चित्त हो विहरे, विहरते हैं, या विहरेंगे, वह सभी कामो के समुदय, अस्तगमन ॰ को ठीक से जानकर, काम-तृष्णा को छोड; काम-विषयक जलन को हटा, (काम की) प्यास से रहित हो, अपने अन्दर उपशांत-चित्त हो विहरे थे, विहरते हैं, या विहरेगे।

तब भगवान् ने उसी समय इस उदान को कहा—

“आरोग्य (= निरोग रहना) परम लाभ है, निर्वाण परम सुख है।
अमृत की ओर ले जाने वाले मार्गो अष्टांगिक मार्ग (बहुत) क्षेम (= मंगल) भय है।”

ऐसा कहने पर मागन्दिय परिब्राजक ने भगवान् से यह कहा—

“आश्चर्य! भो गौतम! अद्भुत!! भो गौतम! कैसा सु-भाषित (= ठीक कहा) आप गौतम ने कहा—‘आरोग्य परम लाभ है, निर्वाण परम सुख है।’ मैंने भी भो गौतम! (अपने) पूर्व के परिब्राजक आचार्य-प्राचार्यो को कहते सुना है—‘आरोग्य परम लाभ है, निर्वाण परम सुख है’। भो गौतम! यह उससे मिल जाता है।”

“मागन्दिय! जो तूने पूर्व के परिब्राजक आचार्य-प्राचार्यो को कहते सुना है—‘आरोग्य ॰‘; उसमें क्या है आरोग्य, और क्या है निर्वाण?”

ऐसा कहने पर मागन्दिय परिब्राजक अपने शरीर को छूते हुये (बोला)—

“भो गौतम! यह आरोग्य है, यह निर्वाण है, भो गौतम! मैं इस समय अ-रोग, सुखी हूँ, मुझे कोई व्याधि नहीं है।”

“जैसे, मागन्दिय! जन्मान्ध पुरूष न देखे काले ॰, ॰ सफेद रूप को, न देखे नीले रूप को, न देखे पीले रूप को, न देखे लाल रूप को, न देखे मजीठी रंग रूप को, न देखे सम-विषम (भूमि) को, न देखे तारों के रूप को, न देखे चन्द्र-सूर्य को। वह आँख वालों को कहते सुने—‘श्वेत वस्त्र बढिया होता है, सुंदर-निर्मल-शुचि (होता है)’। वह श्वेत की खोज में चले। उसे कोई पुरूष तेल की स्याही लगे काले (ऊनी) कपडे से वंचित करे—‘हे पुरूष! यह बढिया, सुन्दर, निर्मल, शुचि श्वेतवस्त्र है’। वह उसे परिग्रहण हरे, प्रतिग्रहण करे, पहिने। पहिन कर संतुष्ट हो फूलकर वचन निकाले—‘अहो! श्वेतवस्त्र बढिया होता है, सुन्दर-निर्मल-शुचि (होता है)’। तो क्या मानता है मागंदिय! क्या वह जन्मान्ध पुरूष जान-समझकर उस तेल की स्याही लगे काले कपडें को परिग्रहण करता, प्रतिग्रहण करता, ॰। पहिनकर ॰ वचन निकालता—‘अहो! श्वेत वस्त्र ॰‘; या आँख वाले पर श्रद्धा करता?”

“भो गौतम! वह जन्मान्ध पुरूष न जान-समझकर ही उस तेल की स्याही लगे ॰ प्रतिग्रहण करता है ॰। ॰ आँख वाले पर श्रद्धा करता है।”

“ऐसे ही, मागन्दिय! अन्धे नेत्रहीन अन्य-तीर्थिक (= दूसरे मतवाले) परिब्राजक आरोग्य को न जानते, निर्वाण को न देखते भी इस गाथा को कहते हैं—‘आरोग्य परम लाभ है, निर्वाण परम सुख है।’ मागन्दिय! पूर्व के अर्हत् सम्यक् संबुद्धों ने इस गाथा को कहा हैं—‘आरोग्य परम लाभ है, ॰ अष्टांगिक-मार्ग क्षेम हैं’। सो अब धीरे धीरे अनाडियों (= पृथग्जनों) में चली गई। मागन्दिय! यह काया रोगमय, गंड (= फोडा)-मय, शलय, (= काँटा)-मय अघमय, व्याधि-मय है। सो तू इस रोगमय ॰ व्याधिमय काया को कह रहा है—‘भो गौतम! यह आरोग्य है, यह निर्वाण है। मागन्दिय! तुझे आर्य-चक्षु नहीं है, जिससे कि तू आरोग्य को जाने, निर्वाण को देखे।”

“मैं आप गौतम में इतनी श्रद्धा रखता हूँ; आप गौतम को अधिकर है, कि मुझे उस प्रकार धर्म-उपदेश करें, जिससे कि में आरोग्य को जान सकूँ, निर्वाण को देख सकूँ।”

“जैसे मागन्दिय! जो जन्मान्ध पुरूष ॰ न देखे चन्द्र-सूर्य को। (तब) उसके मित्र-अमात्य, ज्ञाति-सलोहित शल्य-कर्ता भिषक् को लावें। वह शल्यकर्ता भिषक् उसकी चिकित्सा करें वह उस चिकित्सा से न आँखों को उत्पन्न करे, न आँखों को साफ करे। तो क्या मानता है, मागन्दिय! क्या वह वैद्य सिर्फ हैरानी, परेशानी ही भागी है न?”

“हाँ, भो गौतम!”

“ऐसे ही मागन्दिय! मैं तो तुझे धर्म-उपदेश करूँ—यह आरोग्य है, यह निर्वाण है; और तू उस आरोग्य को न जाने, उस निर्वाण को न देखे; तो यह मेरी (व्यर्थ की) परेशानी होगी, विहिंसा (= पीडा) होगी।”

“मैं आप गौतम में इतनी श्रद्धा रखता (= प्रसन्न) हूँ; आप गौतम को अधिकार है, ॰ निर्वाण को देख सकूँ।”

“जैसे मागन्दिय! जन्मान्ध पुरूष ॰ को, न देखे चन्द्र-सूर्य को। वह आँख वालों को कहते सुने ॰ वह उसे परिग्रहण=प्रतिग्रहण के, पहिने। (तब) उसके मित्र-अमात्य, ज्ञाति-सलोहित शल्यकर्ता भिषक् को लावें। वह ॰ चिकित्सा—ऊघ्र्व विरेचन (= उल्टी आने की दवा), अधोविरेचन (= जुलाब), अंजन, प्रत्यंजन, नत्थुकम्म (= नाक से औषध-प्रदान) करे। वह उस भैषज्य से आँखों को उत्पन्न करें, आँखों को साफ करे। आँख उत्पन्न होने के साथ ही, उस तेल-मसी से लिपटे काले कपडे (= साहुल-चीवर=काली भेड के बाल के कपडों) में उसका छन्द=राग नष्ट हो जाये। और वह उस (वंचक) पुरूष को अमित्र मानने लगे, प्रत्यर्थि (= शत्रु) मानने लगे, बल्कि प्राण से भी मारना चाहे—‘अरे, चिरकाल से यह पुरूष तेल-समीकृत साहुल-चीवर से मुझे वंचित=निकृत=प्रलब्ध करता रहा—‘हे पुरूष! यह बढिया, सुन्दर, निर्मल, शुचि, श्वेत वस्त्र है।’ ऐसे ही मागन्दिय! मैं तुझे धर्मोपदेश करूँ—यह आरोग्य है, यह निर्वाण हैं, और तू आरोग्य को जाने, निर्वाण को देखे; तो आँख उत्पन्न होने के साथ ही, जो पाँच उपादान-स्कंधों में तेरा छन्द=राग है, वह नष्ट हो जाये। तुझे यह भी होवे—अरे, चिरकाल से यह चित्त मुझे वंचित=विकृत=प्रलब्ध करता रहा। मैं रूप को ही (अपना करके) ग्रहण (= उपादान) करता रहा, वेदना ॰, संज्ञा ॰ संस्कार ॰, विज्ञान को ही (अपना करके) ग्रहण करता रहा। मेरा उस उपादान के कारण भव, (= संसार), भव के कारण जाति (= जन्म) जाति के कारण जरा-मरण शोक-रोदन क्रंदन, दुःख=दौर्मनस्य परेशानी उत्पन्न होती रही। इस प्रकार इस केवल दुःख-स्कंध (= दुःख-पुंज) की उत्पत्ति (= समुदय) होती है।”

“मैं आप गौतम में इतनी श्रद्धा रखता हूँ, आप गौतम को अधिकार है, कि मुझे इस प्रकार धर्मोपदेश करें, जिसमें कि मैं इस आसन से अन्-अन्ध होकर उठूँ।”

“तो मागन्दिय! तू सत्पुरूषों का सेवन कर। जब तू सत्पुरूषों का सेवन करेगा, तो सद्धर्म को सुनेगा। जब तू मागन्दिय! सद्धर्म सुनेगा, तो सद्धर्म के अनुसार आचरण करेगा। जब तू मागन्दिय! सद्धर्म के अनुसार आचरण करेगा, तो स्वयं ही जानेगा, स्वयं ही देखेगा—‘यह रोग, गंड, शल्य हें; यहाँ सारे रोग, गंड (= फोडा), शल्य (= काँटा) निरूद्ध (= नष्ट) होते है’। तब मेरे उपादान क निरोध से भव-निरोध, भव-निरोध से जाति-निरोध, जाति-निरोध से जरा-मरण शोक-परिदेव दुःख-दौर्मनस्य-उपायासों का निरोध होता है। इस प्रकार इस केवल दुःख-स्कंध का निरोध होता है।’

ऐसा कहने पर मागंदिय परिब्राजक ने भगवान् से यह कहा—

“आश्चर्य! भो गौतम! आश्चर्य!! भो गौतम! जैसे औंधे को सीधा कर दे ॰ यह मैं भगवान् गौतम की शरण जाता हूँ, धर्म और भिक्षु-संघ की भी। भन्ते! मैं भगवान् के पास प्रब्रज्या पाऊँ, उपसंपदा पाऊँ।”

“मागन्दिय! जो कोई भूतपूर्व अन्य-तीर्थिक इस धर्म मे प्रब्रज्या उपसंपदा चाहता है; वह चार मास तक परिवास करता है।”

“यदि भन्ते! ॰ चार मास परिवास करते हैं ॰ तो मैं चार वर्ष परिवास करूँगा।”

मागन्दिय परिब्राजक ने भगवान् के पास प्रब्रज्या उपसंपदा पाई।

उपसम्पन्न होने के बाद जल्दी ही आयुष्मान् मागन्दिय, एकाकी एकान्तवासी ॰ आत्मसंयमी हो विहरते, जल्दी ही ॰ अनुपम ब्रह्मचर्य फल को इसी जन्म में ॰ प्राप्त कर विहरने लगे, ॰ आयुष्मान् मागन्दिय अर्हतों में से एक हुये।