मज्झिम निकाय

77. महा-सकुलुदायि-सुत्तन्त

ऐसा मैंने सुना—

एक समय भगवान् राजगृह में वेणुवन कलन्दक-निवाप में विहार करते थे। उस समय बहुत से प्रसिद्ध-प्रसिद्ध (= अभिज्ञात) परिब्राजक मोर-निवाप परिब्राजकाराम में वास करते थे; जैसे कि—अनुगार-वरचर और सकुल-उदायी परिब्राजक तथा दूसरे अभिज्ञात अभिज्ञात परिब्राजक।

तब भगवान् पूर्वाह्न-समय पहिनकर पात्र-चीवर ले, राजगृह में पिंड-चार के लिये प्रविष्ट हुये। भगवान् को यह हुआ—‘राजगृह मैं पिंड-चार के लिये अभी बहुत सवेरा है, क्यों न मैं जहाँ भोर-निवाप परिब्राजकाराम था, वहाँ गये। उस समय सकुल-उदायी परिब्राजक ॰ बहुत भारी परिब्राजक-परिषद् के साथ बैठा था। सकुल-उदायी परिब्राजक ने दूर से ही भगवान् को आते देखा। देखकर अपनी परिषद् से कहा—॰।

भगवान् जहाँ सकुल-उदायी परिब्राजक था, वहाँ गये। सकुल-उदायी परिब्राजक ने भगवान् से कहा—

“आइये भन्ते! भगवान्! स्वागत है, भन्ते! भगवान्1 चिरकाल वाद भगवान् वहाँ आये। भन्ते! भगवान्! बैठिये, यह आसन बिछा है।”

भगवान् बिछे आसन पर बैठे। सकुल-उदायी परिब्राजक भी एक नीचा आसन लेकर, एक ओर बैठ गया। एक ओर बैठे सकुल-उदायी परिब्राजक ने भगवान् से कहाः—

“उदायी! किस कथा में बैठे थे, क्या कथा बीच में हो रही थी?”

“जाने दीजिये, भन्ते! इस कथा को, जिस कथा में हम इस समय बैठे थे। ऐसी कथा भन्ते! आपको पीछे भी सुननी दुर्लभ न होगी। पिछले दिनो भन्ते! कुतूहल-शाला में बैठे, एकत्रित हुए, नाना तीर्थो (= पन्थों) के श्रमण-ब्राह्मणों के बीच में यह कथा उत्पन्न हुई। अंग-मगधों का लाभ है, अंग-मगधों को अच्छा लाभ मिला; जहाँ पर कि राजगृह में (ऐसे 2) संघपति=गणी=गणाचार्य ज्ञात=यशस्वी बहुत जनों से सुसम्मानित, तीर्थकर (= पंथ-संस्थापक) वर्षावास के लिये आये हैं। यह पूर्णकाश्यप संघी, गणी, गणाचार्य, ज्ञात, यशस्वी बहुजन-सुसम्मानित तीर्थकर हैं, सो भी राजगृह में वर्षावास के लिये आये है। ॰ यह मक्खली गोसाल ॰। ॰ अजित केश-कम्बली ॰। ॰ प्रक्रुध कात्यायन ॰। ॰ संजय वेलट्ठि-पुत्त ॰। ॰ निगंठ नातपुत्त ॰। यह श्रमण गौतम भी संघी ॰। यह भी राजगृह में वर्षावास के लिये आये है। इन संघी ॰ भगवान् श्रमण ब्राह्मणों में कौन श्रावकों (= शिष्यों) से (अधिक) सत्कृत=गुरूकृत=मानित=पूजित हैं? किसको श्रावक सत्कार, गौरव, मान, पूजा कर विहरते है?”

वहाँ किन्ही ने ऐसा कहा—यह जो पूर्ण काश्यप संघी ॰ हैं, ॰ सो श्रावकों से न सत्कृत ॰ न पूजित हैं। पूर्ण काश्यप को श्रावक सत्कार, गौरव, मान पूजा करके नहीं विहरते। पहिले (एक समय) पूर्ण काश्यप अनेक-सौकी सभा को धर्म उपदेश कर रहे थे। वहाँ पूर्ण काश्यप के एक श्रावक ने शब्द किया—‘आप लोग इस बात को पूर्ण काश्यप से मत पूछें। यह इसे नहीं जानते। हम इसे जानते है। हमें यह बात पूछें! हम इसे आप लोगों को बतलायेंगे। उस वक्त पूर्ण काश्यप बाँह पकड कर, चिल्लाते थे—‘आप सब चुप रहे, शब्द मत करें। यह लोग आप सबसे नहीं पूछते। हमसे……पूछते है। हम इन्हं बतलायेंगे।—(किन्तु) नहीं (चुप करा) पाते थे। पूर्ण काश्यप के बहुत से श्रावक विवाद करके निकल गये—‘तू इस धर्म-विनय को नहीं जानता, मैं इस धर्म-विनय को जानता हूँ। ‘तू क्या इस धर्म का जानेगा’? ‘तू मिथ्या-आरूढ़ हैं, मैं सत्य-आरूढ (= सम्यक्-प्रतिपन्न) हूँ’। ‘मेरा (वचन) सहित (= सार्थक) है, तेरा अ-सहित हैं’। ‘पहिले कहने की (बात तूने) पीछे कही, पीछे कहने की (बात) पहिले कही’। ‘न किये (= अविचीर्ण) को तूने उलट दिया’। ‘तेरा वाद निग्रह में आ गया’। ‘वाद छोडाने के लिये (यत्न) कर’। ‘यदि सकता है तो खोल ले’। इस प्रकार पूर्ण काश्यप श्रावकों से न सत्कृत ॰ न पूजित हैं ॰। बल्कि पूर्ण काश्यप सभा की धिक्कार (= धम्मक्कोस) से धिक्कारे गये है।

“किसी किसी ने कहा—यह मक्खली गोसाल संघी ॰ भी श्रावकों से न सत्कृत ॰ न पूजित हैं ॰। ॰। ॰। ॰ यह अजित केश-कम्बली ॰ भी ॰। ॰। ॰ यह प्रक्रुध कात्यायन ॰ भी ॰। ॰। ॰ ॰ यह संजय बेल-ट्ठिपुत्त ॰ भी ॰। ॰। ॰ यह निगंठ नातपुत्त ॰ भी ॰। ॰।

“किसी किसी ने कहा—यह श्रमण गौतम संघी ॰ है। और यह श्रावकों से ॰ पूजित है। श्रमण-गात्म का श्रावक सत्कार=गौरवकर, आलंब ले, विहरते हैं। पहिले एक समय श्रमण गौतम अनेक सौ की सभा को धर्म उपदेश कर रहे थें। वहाँ श्रमण गौतम के एक शिष्य ने खाँसा। दूसरे सब्रह्मचारी (= गुरूभाई) ने उसका पैर दबाया—‘आयुष्मान्! चुप रहे, आयुष्मान्! शब्द मत करें। शास्ता हमे धर्म-उपदेश कर रहे हैं।’ जिस समय श्रमण गौतम अनेकशत परिषद् को धर्म उपदेश देते हैं, उस समय श्रमण गौतम श्रावकों थूकनें खाँसने का (भी) शब्द नहीं होता। उनकी जनता प्रशंसा करती, प्रत्युत्थान करती है—‘जो हमें भगवान् धर्म उपदेश करें, उसे सुनेंगे।’ श्रमण गौतम के जो श्रावक सब्रह्मचारयों के साथ विवाद करके (भिक्षु-) शिक्षा (= नियम) को छोड, हीन (गृहस्थ-आश्रम) को लौट जाते हैं, वह भी शास्ता के प्रशंसक होते है, धर्म के प्रशंसक होते हैं, संघ के प्रशंसक होते हैं। दूसरे की नहीं, अपनी ही निन्दा करते हैं—‘हम ही….भाग्यहीन हैं, जो कि ऐसे स्वाख्यात धर्म में प्रब्रजित हो, परिपूर्ण परिशुद्ध ब्रह्मचर्य को जीवन भर पालन नहीं कर सकें’, (और)वह आराम-वेक (= आरामिक) हो या गृहस्थ (= उपासक) हो, पाँच शिक्षपदों को ग्रहण कर रहते है। इस प्रकार श्रमण गौतम श्रावकों से ॰ पूजित हैं। श्रमण गौतम को श्रावक सत्कार=गौरव कर, आलम्ब ले विहरते हैं।”

“उदायी! तू किन किन कितने धर्मों को देखता है, जिनसे मुझे श्रावक ॰ पूजते हैं ॰?”

“भन्ते! भगवान् में मैं पाँच धर्मो को देखता हूँ, जिनसे भगवान् को श्रावक ॰ पूजते है ॰। कौन से पाँच?—भन्ते! भगवान् (1) अल्पाहारी अल्पाहार के प्रशंसक हैं, जो कि भन्ते! भगवान् अल्पाहारी, अल्पाहार-प्रशंसक हैं; इसको मैं भन्ते! भगवान् में प्रथम धर्म देखता हूँ, जिससे भगवान् को श्रावक ॰। ॰ (2) जैसे तैसे चीवर (वस्त्र) से सन्तुष्ट रहते हैंख् जैसे तैसे चीवर से संतुष्टता के प्रशंसक ॰। ॰ (3) जैसे तैसे पिंडपात (= भिक्षाभोजन) से संतुष्ट ॰, ॰ संतुष्टता प्रशंसक ॰। ॰ (4) ॰ शयनासन (= घर, बिस्तरा) से संतुष्ट, संतुष्टा-प्रशंसक ॰। ॰ (5) ॰ एकान्तवासी, ॰ एकान्त-वास-प्रशंसक ॰ भन्ते! भगवान् मैं इन पाँच धर्मो को देखता हूँ ॰।”

“उदायी! ‘श्रमण गौतम अल्पाहारी, अल्पाहार-प्रशंसक हैं’ इससे यदि मुझे श्रावक ॰ पूजते, ॰ आलम्ब ले विहरते; तो उदायी! मेरे श्रावक कोसक (= पुरूवा) भर आहार करने वाले, अर्द्ध-कोसक आहारी, बाँस (= बाँस काटकर बनाया छोटा बर्तन) भर आहार करने वाले, आधा बाँस-आहारी भी है। मैं उदायी! कभी कभी इस पात्र भर खाता हूँ, अधिक भी खाता हूँ। यदि ‘॰अल्पाहारी, अल्पाहार-प्रशंसक हैं’ इससे ॰ पूजते ॰ तो उदायी! जो मेरे श्रावक ॰ आधा बाँस आहारी हैं, वह मुझे इस धर्म से न सत्कार करते ॰।

, “उदायी! ‘॰ जैसे तैसे चीवर से सन्तुष्ट ॰ संतुष्टता-प्रशंसक ॰’ इससे यदि मुझे श्रावक ॰ पूजते ॰; तो उदायी! मेरे श्रावक पाँसु-कूलिक=रूक्ष चीवर-धारी भी हैं—वह श्मशान से कूडे के ढेर से लत्ते-चिथड़े बटोरकर संघाटी (= भिक्षु का ऊपर का दोहरा वस्त्र) बना, धारण करते हैं। मैं उदायी! किसी किसी समय दृढ शस्त्र-रूक्ष, लौका जैसे रोम वाले (= मखमली) गृहपतियों के दिये वस्त्र को भी धारण करता हूँ। ॰।

“उदायी! ‘॰ जैसे तैसे पिंड-पात से सन्तुष्ट, ॰ सन्तुष्टता-प्रशंसक ॰’ इससे यदि मुझे श्रावक ॰ पूजते ॰; तो उदायी! मेरे श्रावक पिंड-पातिक (= मधुकरी-वाले), सपदान चारी (= निरन्तर चलते रह, भिक्षा माँगने वाले) उछ-व्रत में रत भी हैं—वह गाँव में आसन के लिये निमंत्रित होने पर भी, (= निमन्त्रण) नहीं स्वीकार करते। मैं तो उदायी! कभी कभी निमन्त्रणों मे धान का भात, कालिमा-रहित अनेक सूप, अनेक व्यंजन (= तर्कारी) भी भोजन करता हूँ।॰।

“उदायी! ‘॰ एकान्तवासी एकान्तवास-प्रशंसक हैं ॰’ इससे यदि ॰ पूजते; तो उदायी! मेरे श्रावक आरण्यक (= सदा अरण्य में रहने वाले), प्रान्त-शयनासन (= बस्ती से दूर कुटी वाले) हैं; (वह) अरण्य में वनप्रस्थ=प्रान्त के शयनासनों में रह कर विहरते हैं। वह प्रत्येक अर्द्धमास प्रातिमोक्ष-उद्देश (= अपराध-स्वीकार) के लिये, संघ के मध्य में आते हैं। मै तो उदायी! कभी कभी भिक्षुओं, भिक्षुणियों, उपासकों, उपासिकाओं, राजा, राज-महामात्यों, तैर्थिकों, तैर्थिक-श्रावकों से आकीर्ण हो विहरता हूँ। ॰। इस प्रकार उदायी! मुझे श्रावक इन पाँच धर्मो से नहीं ॰ पूजते ॰।

“उदायी दूसरे पाँच धर्म हैं, जिनसे श्रावक मुझे ॰ पूजते हैं ॰। कौन से पाँच?—यहाँ उदायी! (1) श्रावक मेरे शील (= आचार) से सन्मान करते हैं—श्रमण गौतम शीलवान् हैं, परम शील-स्कन्ध (= आचार-समुदाय) से संयुक्त हैं। जो कि उदायी! श्रावक मेरे शील में वश्वास करते हैं—॰; यह उदायी! प्रथम धर्म है, जिससे ॰।

“और फिर उदायी! (2) श्रावक मुझे अभिक्रान्त (= सुन्दर) ज्ञान-दर्शन (= ज्ञान का मन से प्रत्यक्ष करने) से सम्मानित करते हैं—जानकर ही श्रमण गौतम कहते हैं—‘जानता हूँ’। देखकर ही श्रमण गौतम कहते हैं—‘देखता हूँ’। अनुभवकर (= अभिज्ञाय) ही श्रमण गौतम धर्म उपदेश करते है, बिना अनुभव किये नहीं। स-निदान (= कारण-सहित) श्रमण गौतम धर्म उदपेश करते हैं, अ-निदान नहीं। स-प्रातिहार्य (= सकारण) ॰, अ-प्रतिहार्य नहीं। ॰।

“और फिर उदायी! (3) श्रावक मुझे प्रज्ञा से सम्मानित करते हैं—श्रमण गौतम परम-प्रज्ञा-स्कंध (= उत्तम-ज्ञान-समुदाय) से युक्त हैं। उनके लिये ‘अनागत (= भविष्य) के वाद-विवाद का मार्ग अन्-देखा हैं, (वह वर्तमान में) उत्पन्न दूसरे के प्रवाद (= खंडन) को धर्म के साथ न रोक सकेंगे’ यह सम्भव नहीं। तो क्या मानते हो उदायी! क्या मेरे श्रावक ऐसा जानते हुये ऐसा देखते हुये, बीच बीच में बात टोकेंगे?”

“नहीं, भन्ते!”

“उदायी! मैं श्रावकों के अनुशासन की आकांक्षा नहीं रखता, बल्कि श्रावक मेरे ही अनुशासन को दोहराते है। ॰।

“और फिर उदायी! (4) दुःख से उत्तीर्ण, विगत-दुख हो, श्रावक, मुझे आकर, दुःख आर्य-सत्य को पूछते हैं। पूछे जाने पर उनको मैं दुःख आर्य-सत्य व्याख्यान करता हूँ। प्रश्न के उत्तर से मैं उनके चित्त को सन्तुष्ट करता हूँ। वह आकर मुझे दुःख-समुदय आर्य-सत्य पूछते हैं ॰। ॰ दुःख-निरोध ॰। ॰ दुःख-निरोध-गामिनी-प्रतिपद् आर्य-सत्य पूछते हैं ॰। ॰।

“और फिर उदायी! (5) मैंने श्रावकों को प्रतिपद् (= मार्ग) बतला दी है। जस पर आरूढ हो श्रावक चारों स्मृति-प्रस्थानों की भावना करते है—भिक्षु काया में कायानुपश्यी हो विहरते हैं ॰, ॰ वेदनानुपश्यी ॰, ॰ चित्तानुपश्यी ॰, धर्म में धर्म की अनुपश्यना (= अनुभव) करते, तत्पर, स्मृति-सम्प्रजन्य युक्त हो, द्रोह=दौर्मनस्य हटा कर लोक में विहरते है। तिसमें बहुत से मेरे श्रावक अभिज्ञा-व्यवसान-प्राप्त=अभिज्ञा-पारमिता-प्राप्त (= अर्हत्-पद-प्राप्त) हो विहरते है।

“और फिर उदायी! मैंने श्रावकों को (वह) प्रतिपद् बतला दी है; जिस पर आरूढ हो मेरे श्रावक चारों सम्यक्-प्रधानों की भावना करते है। उदायी! भिक्षु, (1) (वर्तमान में) अन्-उत्पन्न पाप=अ-कुशल (= बुरे) धर्मा को न उत्पन्न होने देने के लिये, छन्द (= रूचि) उत्पन्न करते हैं, कोशिश करते हैं=वीर्य-आरम्भ करते हैं, चित्त को निग्रह=प्रधान करते है। (2) उत्पन्न पाप=अ-कुशल-धर्मो के विनाश के लिये ॰। (3) अनुत्पन्न कुशल-धर्मो की उत्पत्ति के लिये ॰। (4) उत्पन्न कुशल-धर्मो की स्थिति=असम्मोप, वृद्धि=विपुलता के लिये, भावना-पूर्ण कर छन्द उत्पन्न करते हैं ॰। यहाँ भी बहुत से मेरे श्रावक (अर्हत्-पद) प्राप्त हैं।

“और फिर उदायी! मैंने श्रावकों को प्रतिपद् बतला दी हैं, जिस पर आरूढ हो मेरे श्रावक चारों ऋद्धि-पादों की भावना करते हैं। यहाँ उदायी! भिक्षु (1) छन्द-समाधि-प्रधान-संस्कार-युत द्धद्धि-पाद की भावना करते हैं। (2) वीर्य-समाधि-प्रधान-संस्कार-युकत ऋद्धि-पाद की भावना करते है। (3) चित्त-समाधि ॰। (4) विमर्ष-समाधि ॰। यहाँ भी ॰।

“और फिर उदायी! ॰ जिस पर आरूढ हो मेरे श्रावक पाँच इन्द्रियों की भावना करते है। उदायी! यहाँ भिक्षु (1) उपशम=सम्बोध की ओर जाने वाली, श्रद्धा-इन्द्रिय की भावना करते हैं। (2) वीर्य-इन्द्रिय ॰, (3) स्मृति-इन्द्रिय ॰ (4) समाधि-इन्द्रिय ॰। ॰।

“॰ । ॰ पाँच बलों की भावना करते हैं।—॰ श्रद्धाबल ॰, वीर्य-बल ॰, स्मृति-बल ॰, समाधि-बल ॰, प्रज्ञाबल ॰।

“॰। ॰ सात बोधि-अंगो की भावना करते हैं।—यहाँ उदायी! भिक्षु विवेक-आश्रित, विराग-आश्रित, निरोध-आश्रित व्यवसर्ग-फलवाले (1) स्मृति-सम्बोधि-अंग की भावना करते हैं, ॰ (2) धर्म-विचय-सम्बोध्यंग की भावना करते है। ॰ (3) वीर्य-सम्बोध्यंग ॰। (4) प्रीति-सम्बोध्यंग ॰। ॰ (5) प्रश्रब्धि-सम्बोध्यंग ॰। ॰ (6) समाधि-सम्बोध्यंग ॰। ॰ (7) उपेक्षा-सम्बोध्यंग ॰। ॰।

“और फिर ॰ आर्य अष्टांगिक मार्ग की भावना करते हैं। उदायी! यहाँ भिक्षु (1) सम्यग्-दृष्टि की भावना करते है। ॰ (2) सम्यक्-संकल्प ॰। ॰ (3) सम्यग्-वाक् ॰ (4) ॰ सम्यक्-कर्मान्त ॰। ॰ (5) सम्यग्-आजीव ॰। ॰ (6) सम्यग्-व्यायाम ॰। ॰ (7) सम्यक्-स्मृति ॰। ॰ (8) सम्यक-समाधि ॰। ॰।

“आठ विमोंक्षों की भावना करते है। (1) रूपी (= रूपवाला) रूपों को देखते हैं, यह प्रथम विमोक्ष है। (2) शरीर के भीतर (= अध्यात्म) अ-रूप-संज्ञी (= रूप नहीं है)—के ज्ञान वाले, बाहर रूपों को देखते हैं ॰। (3) शुभ ही अधिमुक्त (= मुक्त) होते हैं ॰। (4) सर्वथा रूप- संज्ञा (= रूप के ख्याल) को अतिक्रमण कर, प्रतिहिंसा के ख्याल के लुप्त होने से, नानापन के ख्याल को मन में न करने से ‘आकश अनन्त हैं’ इस आकाश-आनन्त्यायतन को प्राप्त हो विहरते हैं ॰। (5) सर्वथा आकाशानन्त्यायतन को अतिक्रमण कर ‘विज्ञान (= चेतना) अनन्त हैं’ इस विज्ञान-आनन्तय-आयतन को प्राप्त हो विहरते हैं ॰। (6) सर्वंथा विज्ञानानन्त्यायतन को अतिक्रमण कर ‘कुछ नहीं है’—इस आकिंचन्य-आयतन को प्राप्त हो ॰। (7) सर्वथा आकिंचन्यायतन को अतिक्रमण कर , नैवसंज्ञा-न-असंज्ञा-आयतन (= जिस समाधि का आभास न चेतना ही कहा जा सकता है, न अचेतना हीं) को प्राप्त हो ॰। (8) सर्वथा नैव-संज्ञाना-संज्ञायतन को अतिक्रमण कर प्रज्ञा-वेदित-निरोध (= पंजावेदयित-निरोध) को प्राप्त हो विहरते हैं, यह आठवाँ विमोक्ष है। इससे और इसमें मेरे बहुत से श्रावक…(= अर्हत्-पद प्राप्त हैं)।

“और फिर उदायी! ॰ आठ अभिभू-आयतनों की भावना करते है। (1) एक (भिक्षु) शरीर के भीतर (= अध्यात्म) रूप का ख्यालवाला (= रूपसंज्ञी), बाहर सु-वर्ण दुर्वर्ण क्षुद्र-रूपों को देखता है। उन्हंे अभिभूत कर विहरता है, वह प्रथम अभिभ्वायतन है। (2) अध्यात्म में रूप-संज्ञी, बाहर सु-वर्ण, दु-र्वर्ण अ-प्रमाण (= बहुत भारी) रूपों को देखता है। ‘उन्हें अभिभूत कर जानता हूँ, देखता हूँ’—इस ख्याल वाला होता है। ॰। (3) अध्यात्म में अ रूप-संज्ञी (= ‘रूप नहीं हैं इस ख्याल वाला), बाहर सुवर्ण दुर्वर्ण क्षुद्र-रूपों को देखता है—॰। (4) अध्यात्म से अरूप-संज्ञी, बाहर सुवर्ण दुर्वण अ- प्रमाण रूपों को देखता हैं”॰। (5) अध्यात्म से अरूप-संज्ञी बाहर नील-नील वर्ण=नील-निदर्शन=निल-निभास रूपों को देखता हे। जैसे कि अलसी का फुल नील=नील-वर्ण=निल-निदर्शननील-निभास; जैसे कि दोनों ओर से विमृष्ट (= कोमल, चिकना) नील ॰ बनारसी (= वाराण्सेयक) वस्त्र, ऐसे ही अध्यात्म से अरूप-संज्ञी एक (भिक्षु) बाहर नील ॰ रूपों को देखता हैं—‘अनको अभिभूत कर जानता हूँ देखता हूँ’ इसे जानता है ॰। (6) अध्यात्म में अरूप-संज्ञी एक (भिक्षु) बाहर पीत (= पीला)=पीतवर्ण पीत-निदर्शन=पीत-निभास रूपों को देखता है। जैसे कि पीत ॰ कर्णिकार का फूल या जैसे व ॰ पीत ॰ बनारसी वस्त्र ॰। ॰। (7) अध्यात्म में अरूप-संज्ञी…(पुरूष) लोहित (= लाल) =लोहितवर्ण=लोहित’—निदर्शन=लोहित-निभास रूपों को देखता है। जैसे कि लोहित ॰ बंधुजीवक (= अँडहुल) का फूल, या जैसे लाल ॰ बनारसी वस्त्र ॰। ॰। (8) अध्यात्म में अल्प-संज्ञी…अवदात (= सफेद) ॰ रूपों को देखता है। जैसे कि अवदात ॰ शुक्रतारा (= ओसधी-तारका), या जैसे कि सफेद ॰ बनारसी वस्त्र ॰। ॰।

“और फिर उदायी! ॰ दश कृत्स्न-आयनत (= कसिणायतन) की भावना करते हैं। (1) एक पुरूष ऊपर, नीचे, तिर्छे, अद्वितीय, अप्रमाण पृथ्वी-कुत्स्न (= पृथ्वी-कसिण=सारी पृथिवी ही) जानता है। (2) ॰ आप-कृत्स्न (= सारा पानी) ॰। (3) ॰ तेजः-कृत्स्न (= सारा तेज) ॰। (4) ॰ ॰ वायु-कृत्स्न (= सारी हवा ही) ॰। (5) ॰ नील-कृत्स्न (= सारा नीला रंग) ॰। (6) ॰ पीत-कृत्स्न ॰। (7) लोहित-कृत्स्न ॰। (8) ॰ अवदात-कृत्स्न (= सारा सफेद) ॰। (9) ॰ आकाश-कृत्स्न ॰। (10) ॰ विज्ञान-कृत्स्न (= चेतनामय, चिन्मात्र) ॰।

“और फिर उदायी! ॰ चार ध्यानों की भावना करते है। उदायी! भिक्षु कामों से अलग हो, अकुशल धर्मो (= बुरी बातों) से अलग हो वितर्क-विचार-सहित विवेक से उत्पन्न प्रीति-सुख-रूप प्रथम-ध्यान को प्राप्त हो विहरता है। वह इसी काया को, विवेक से उत्पन्न प्रीति-सुख द्वारा प्लावित, परिप्लावित करता हैं, परिपूर्ण=परिस्फरण करता है। (उसकी) इस सारी काया का कुछ भी (अंश) विवेक-ज प्रीति सुख से अछूता नहीं होता। जैसे कि उदायी! दक्ष (= चतुर) नहापित (= नहलाने वाला), या नहापित का चेला (= अन्तेवासी) काँसे के थाल में स्नानीय-चूर्ण को डालकर, पानी सुखा सुखा हिलावे। सो इसकी नहान-पिंडी शुभ (= स्वच्छता)-अनुगत, शुभ-परिगत शुभ से अन्दर-बाहर लिप्त हो पिघलती हैं। ऐसे ही उदायी! भिक्षु इसी काया को विवेकज प्रीति सुख से प्लावित आप्लावित करता है, परिपूरण=परिस्फरण करता हैं। ॰।

“और फिर उदायी! भिक्षु वितर्क विचारों के उपशांत होने से ॰ द्वितीय-ध्यान को प्राप्त हो विहरता है। वह इसी काया को समाधिज प्रीति-सुख से प्लावित=आप्लावित करता है ॰। जैसे उदायी! पाताल फोडकर निकला पानी का दह हो। उसके न पूर्व-दिशा में पानी के आने का मार्ग हो, न पश्चिम-दिशा में, न उत्तर-दिशा में, न दक्षिण्-दिशा में ॰। देव भी समय समय पर अच्छी तरह धान न बरसावें, तो भी उस पानी के दह (= उदक-हद) से शीतल वारिधारा फूटकर उस उदक ह्रद को शीलत जल से प्लावित, आप्लावित करें, परिपूरण-परिस्फरण करे॰; इस सारे उदक-ह्रद का कुछ भी (अंश) शीतल जल से अछूता न हो। ऐसे उदायी! इसी काया को समाधिज प्रीति-सुख से ॰।

“और फिर उदायी! भिक्षु ॰ तृतीय-ध्यान को प्राप्त हो विहरता है। वह इसी काया को निष्प्रीतिक (= प्रीति-रहित) सुख से प्लावित ॰ करता है ॰। जैसे उदायी! उत्पलिनी (= उत्पल-समूह), पद्मिनी, पुण्डरी किनी में कोई कोई उत्पन, पद्म, पुण्डरीक, पानी में उत्पन्न, पानी मेे बढे, पानी से (बाहर) न निकले, भीतर डूबे ही पोषित, मूल से शिखा तक शीतल जल से प्लावित ॰ होते हैं ॰। ऐसे ही उदायी! भिक्षु इसी काया को निष्प्रीतिक ॰।

“और फिर उदायी! ॰ चतुर्थ ध्यान को प्राप्त हो विहरता है। वह इसी काया को, परिशुद्ध=परि-अवदात चित्त से प्लावित कर बैठा होता है। ॰। जैसे कि उदायी! पुरूष अवदात (= श्वेत)-वस्त्र शिर तक लपेट कर बैठा हो। उसकी सारी काया का कुछ भी (भाग) श्वेत वस्त्र अनाच्छादित न हो। ऐसे ही उदायी! भिक्षु इसी काया को ॰। वहाँ भी मेरे बहुत से श्रावक अभिज्ञा-व्यवसान-प्राप्त, अभिज्ञा-पारभि-प्राप्त हैं।

“और फिर उदायी! मैने श्रावकों को वह मार्ग बतला दिया हैं, जिस (मार्ग) पर आरूढ हो, मेरे श्रावक ऐसा जानते हैं—यह मेरा शरीर रूपवान्, चातुर्महाभूतिक, माता-पिता से उत्पन्न, भात-दाल से बढा, अनित्य=उच्छेद=परिमर्दन=भेदन=विध्वंसन धर्मवाला है। यह मेरा विज्ञान (= चेतना) यहाँ बँधा=प्रतिबद्ध है। जैसे उदायी! शुभ्र उत्तम जाति की, अठकोनी, सुन्दर पालिश की (= सुपरिकर्मकृत), स्वच्छ=विप्रसन्न, सर्व-आकार-युक्त वैदूर्य-मणि (= हीरा) हो। उसमें नील, पीत, लोहिजत, अवदात या पांडु सूत पिरोया हो। उसकों आँखवाला पुरूष हाथ मे लेकर देखे—‘यह शुभ्र ॰ वैदूर्य-मणि हैं, ॰ सूत पिरोया हैं’। ऐसे ही उदायी! मैने ॰ बतला दिया हैं ॰। तहाँ भी मेरे बहुत से श्रावक ॰।

“और फिर उदायी! ॰ मार्ग बतला दिया है, जिस मार्ग पर आरूढ हो मेरे श्रावक, इस काया से रूपवान् (= साकार), मनोमय, सर्वांग-प्रत्यंग-युक्त अखंडित-इन्द्रियों युक्त दूसरी काया को निर्माण करते हे। जैसे उदायी! पुरूष मूँज से सींक निकाले। उसको ऐसा हो—‘यह मूँज हैं, यह सींक। मूँज अलग है, सींक अलग है। मूँज से सींक निकली हैं।’ जैसे कि उदायी! पुरूष म्यान से तलवार निकाले। उसको ऐसा हो—‘यह तलवार है, यह म्यान है। तलवार अलग है, म्यान अलग। म्यान से ही तलवार निकली है।’ जैसे उदायी! पुरूष साँप को पिटारी से निकाले ॰। ऐसे ही उदायी! ॰ मार्ग बतला दिया हैं ॰।

“और फिर उदायी! ॰ मार्ग बतला दिया है, जिस मार्ग पर आरूढ हो, मेरे श्रावक अनेक प्रकार के ऋद्धि-विध (= योग-चमत्कार) को अनुभव करते है। एक होकर बहुत हो जाते है। बहुत होकर एक होते है। आविर्भाव, तिरोभाव (करते हैं)। जैसे भीत-पास प्राकार-पार पर्वत-पार आकाश-जैसे बिना लेन (पार) हो जाते है। पृथिवी में भी डूबना-उतराना करते हैं, जैसे कि जल में। पानी मे भी बिना भीगे चलते हैं, जैसे कि पृथिवी मे। पक्षि (= शकुनी) की भाँति आसन-बाँधें आकाश में चलते है। इतने महर्द्धित-महानुभाव (= तेजस्वी) इन चाँद-सूर्य को भी हाथ से छूते हैं। ब्रह्मलोक तक काया से वश में रखते हैे। जैसे उदायी! चतुर कुंभकार, या कुंभकार चेला, सिझाई मिट्टी से जो जो विशेष भाजन चाहे, उसी उसी को बनावे=निष्पादन करे। या जैसे उदायी! चतुर दन्तकार (= हाथी के दाँत का काम करने वाला) या दंतकारका चेला, सिझायें दाँत से जो दंत-विकृति (= दाँत की चीज) चाहे, उसे बनावे, =निष्पादन करें। या जैसे उदायी! चतुर सुवर्णकार या सुवर्ण कार का चेला, सोधे सुवर्ण से जिस जिस सुवर्ण-विकृति को चाहे उसे बनावे ॰। ऐसे ही उदायी! ॰।

“और फिर उदायी! ॰ जिस मार्ग पर आरूढ हो मेरे श्रावक विशुद्ध, अमानुष, दिव्य, श्रोत्र-धातु (= काम) से दिव्य और मानुष, दूरवर्ती और समीपवर्ती, दोनों ही तरह के शब्दों को सुनते हैं। जैसे कि उदायी! बलवान् शंख-धमक (= शंख-बजाने वाला) अल्प-प्रयास से चारो। दिशाओं को जतला दे। ऐसे ही उदायी ॰।

“और फिर उदायी! ॰ जैसे मार्ग पर आरूढ हो, मेरे श्रावक दूसरे सत्वों=दूसरे पुद्गलों के चित्त को (अपने) चित्तद्वारा जानते है। सराग चित्त को ‘राग-सहित (यह) चित्त हैं’ जानते है। वितराग चित्त को ‘वीत-राग चित्त है’ जानते हे। सद्वेष चित्त को ‘स-द्वेष चित्त हैं’, जानते है। वीत-द्वेष चित्त को ॰। स-मोह चित्त को ॰। वीत-मोह चित्त को ॰। संक्षिप्त-चित्त को ॰। विक्षिप्त-चित्त को ॰। महद्गत (= विशाल)-चित्त को ॰। अ-अहदृगत-चित्त को ॰। स-उत्तर (= जिससे बढ कर भी हैं)-चित्त को ॰। अन्-उत्तर-चित्त को ॰। समाहित (= एकाग्र)-चित्त को ॰। अ-समाहित-चित्त को ॰। विमुक्त (= मुक्त) चित्त को ॰। अ-विमुक्त-चित्त को ॰। जैसे उदायी! कोई शौकिन स्त्री या पुरूष, बालक या तरूण, परिशुद्ध=परि-अवदात दर्पण (= आदर्श) या स्वच्द जलभरे पात्र में अपने मुख-निमित्त (= मुख की शकल) को देखते हुये, स-कणिक अंग होने पर स-कणिकांग (= सदोष अंग) जाने, अ-कणिकांग होने पर अ-कणिकांग जाने। ऐसे ही उदायी ॰। ॰।

“और फिर उदायी! जिस मार्ग पर आरूढ हो, मेरे श्रावक अनेक प्रकार के पूर्व-निवासों (= पूर्व जन्मों) को जानते हैं। जैसे कि, एक जाति (= जन्म) भी, दो जाति भी ॰, तीन जाति भी, चार जाति भी, पाँच जाति भी, बीस जाति भी, तीस जाति भी, चालीस जाति भी, पचास जाति भी, सौ जाति भी, हजार जाति भी, सौ हजार जाति भी, अनेक संवर्त-कल्पों (= महाप्रलयों) को भी, अनेक विवर्त-कल्पों (= सृष्टियों) को भी, अनेक संवर्त-विवर्त-कल्पों को भी, ‘मैं वहाँ इस नाम, इस गोत्र, इस वर्ण, इस आहार-वाला, ऐसे सुख-दुःख को अनुभव करने-वाला इतनी आयु-पर्यन्त था। सो मैं वहाँ से च्युत हो, वहाँ उत्पन्न हुआ। वहाँ भी मैं ॰ इतनी आयुपर्यन्त रहा। सो वहाँ से च्युत (= मृत) हो, यहाँ उत्पन्न हुआ’। इस प्रकार स-आकार (= आकृति-सहित) स-उद्देश (= नाम-सहित) अनेक प्रकार के पूर्व-निवासें को दूसरे ग्राम को जाये। वह उस ग्राम से अपने ही ग्राम को लौट जाये। उसकों ऐसा हो—मैं अपने ग्राम से उस गाँव को गया, वहाँ ऐसे खडा हुआ, ऐसे बैठा, ऐसे बोला, ऐसे चुप रहा। उस ग्राम से भी उस ग्राम को गया। वहाँ भी ऐसे खडा हुआ ॰।

“और फिर उदायी! ॰ जैसे मार्ग पर आरूढ हो मेरे श्रावक विशुद्ध, अ-मानुष दिव्य, चक्षु से हीन, प्रणीत (= उत्पन्न), सुवर्ण दुर्वर्ण, सु-गत दुर्गत सत्वों को च्युत होते, उत्पन्न होते देखते है। कर्मानुसार (गति को) प्राप्त सत्वों को जानते हैं—यह आप सत्व काय-दुश्चरित से युक्त, वाग्-दुश्चरित से युक्त, मन-दुश्चरित से युक्त, आर्यो के निन्दक, मिथ्या-दृष्टि, मिथ्या-दृष्टि कार्म को स्वीकार करते वाले (थे), वह काया छोड मरने के बाद अपाय-दुर्गति=विनिपात=नर्क में उत्पन्न हुये। और यह आप सत्व काय-युचरित से युक्त ॰ आर्यो के अन्-उपवादक (= अनिन्दक) सम्यग्-दृष्टि, सम्यक्-दृष्टि को स्वीकार करने वाले (थे), वह सुगति=स्वर्गलोक मं उत्पन्न हुये हैं। इस प्राकर ॰ दिव्य चक्षु से ॰ देखते है। जैसे उदायी! समान-द्वार वाले दो घर (हों), वहाँ आँखवाला पुरूष बीच में खडा, मनुष्यों को घर में प्रवेश करते भी, निकलते भी, अनुसंचरण विचरण करते भी देखे। ऐसे ही उदायी! ॰।

“और फिर उदायी! ॰ जिस मार्ग पर आरूढ हो मेरे श्रावक आस्रवों के विनाश से अन्-आस्रव (= निर्मल) चित्त की विमुक्ति, प्रज्ञा-विमुक्ति को इसी जन्म में स्वयं जानकर, साक्षात् कर, प्राप्त कर, विहरते है। जैसे कि उदायी! पर्वत से घिरा स्वच्छ=विप्रसन्न=अन्-आविल उदक-ह्रद (= जलाशय) हो। वहाँ आँखवाला पुरूष तीर पर खडा सीप को…कंकड-पत्थर को भी, चलते खडे मत्स्य-झुंड को भी देखे। ऐसे ही उदायी! ॰।

“यह हैं, उदायी! पाँच धर्म जिनसे मुझे श्रावक ॰ पूजते हैं। ॰।”

भगवान् ने यह कहा, सकुल-उदायी परिब्राजक ने भगवान् के भाषण का अनुमोदन किया।